काल के भी काल अर्थात महाकाल के रूप में भगवान का अवतार
भगवान समस्त जगत के समस्त प्राणियों के नियामक हैं । उनकी लीला एवं उनके संकल्पों का रहस्य, माया में पड़ा हुआ जीव किसी भी साधन से नहीं जान सकता। भगवत्कृपा से ही जीव उनके संबंध में थोड़ा बहुत जान पाता है। भगवान अप्रमेय हैं। कालों के भी काल यानी महाकाल हैं। गीता में भगवान कृष्ण ने अर्जुन से स्वयं कहा है “अहमेव अक्षयः कालः” अर्थात मै ही वह अक्षय काल हूँ जिसका कभी नाश नहीं होता | उनकी प्रत्येक लीला अलौकिक होती है। भगवान मन, वाणी के विषय नहीं हैं, फिर भी यथाशक्ति कवियों, भक्तों एवं प्रेमियों ने उनका गुणानुवाद किया है। वेदों ने उन्हें ‘नेति-नेति’ कहकर भगवान के गुणों एवं लीलाओं का वर्णन किया है।
इस जगत में भगवान ब्रह्मारूप से संसार की सृष्टि करते हैं, फिर विष्णु रूप में उसका पालन करते हैं एवं अंत में रूद्ररूप से उसका संहार करते हैं। यहां पर उनके इसी संहारकारी रूप का अर्थात कालस्वरूप का किंचित वर्णन हुआ है। भगवान में सम्पूर्ण ऐश्वर्य, धर्म, यश, श्री, ज्ञान और वैराग्य आदि अनेकानेक गुण हैं | सभी गुणों के निवास स्थान भगवान ही हैं।
भगवान ने अपनी लीला हेतु ही इस सम्पूर्ण जगत की सृष्टि की है। उनके लिये सृष्टि, पालन एवं संहार-तीनों ही प्रकार की लीलाएं समान है। जिस प्रकार बालक मिटटी का खिलौना बनाते हैं, उससे खेलते हैं और अंत में उसे नष्ट कर देते हैं, उसी प्रकार भगवान की ये तीनों लीलाएं हैं। मंगलमय होने से उनकी हर लीला मंगलमयी है। उनकी संहारकारी लीला में भी गुप्त रूप से मंगल भर हुआ है, क्योंकि बिना संहार के सृजन संभव नहीं ।
श्रीमद भगवदगीता में भगवान श्री कृष्ण ने अपने प्रिय सखा अर्जुन को अपने विराट काल-स्वरूप का दर्शन कराया और बोले “देखो मैं ही लोकों का नाश करने वाला बढ़ा हुआ महाकाल हूं। इस समय इन लोकों को नष्ट करने के लिये प्रवृत्त हुआ हूं। इसलिये जो प्रतिपक्षियों की सेना में स्थित योद्धा लोग हैं। ये सब तेरे बिना भी नहीं रहेंगे अर्थात तेरे युद्ध न करने पर भी इन सबका नाश हो जायेगा”।
गीता के दसवें अध्याय में भगवान ने अपनी विभूतियों का वर्णन करते हुए बतलाया है कि “गणना करने वालों में मैं काल हूं, अक्षरों में अकार, समासों में द्वन्द्व तथा अक्षयकाल अर्थात कालों का भी काल, महाकल मैं ही हूं”।
कालस्वरूप होकर ही भगवान पृथ्वी का भार उतारा करते हैं। भगवान सत्य संकल्प हैं। जीव के संकल्प की सफलता भगवदिच्छा पर ही है। महाभारत के युद्ध के पश्चात पृथ्वी का भार हलका हो गया था और सभी लोग यही सोचते भी थे, परंतु भगवान ने सोचा कि यद्यपि लोगों का दृष्टि में भू-भार उतर गया है लेकिन मेरे विचार से अभी पूर्णतया पृथ्वी का भार हल्का नहीं हुआ है, क्योंकि अभी गर्व में चूर ये यदुवंशी बचे हुए हैं।
ये मेरे आश्रित हैं। अतः इनको कोई पराजित भी नहीं कर सकता। अब मुझे ही किसी प्रकार से इन्हें नष्ट करना है। ऐसा विचार कर भगवान ने ब्राह्मणों के शाप के बहाने यदुवंशियों में ही फूट डालकर उन्हें काल को समर्पित कर दिया। भगवान ने श्रीमद भागवत में कहा है “गतिशील पदार्थाें में मैं गति हूं, अपने अधीन करने वालों में मैं काल हूं, गुणों में उनकी मूलस्वरूपा साम्यावस्था हूं और जितने भी गुणवान पदार्थ हैं, उनमें उनका स्वाभाविक गुण हूूं”।
भगवान काल के भी आधार-महाकाल हैं। भगवान के समान तो कोई है ही नहीं, फिर उनसे बढ़ कर कौन हो सकता है? भगवान स्वयं ही प्रकृति, पुरूष और दोनों के संयोग-वियोग के हेतु काल हैं। श्री रामचरितमानस में माल्यवन्त, राक्षसराज रावण को सचेत करते हुए उसे भगवान के काल स्वरूप का बोध कराता है|
इसी प्रकार भगवान के अन्य स्वरूपों के साथ-साथ उनके काल स्वरूप का वर्णन सभी शास्त्रों, पुराणों, महाभारत एवं रामचरितमानस के अनेकानेक स्थलों पर आता है। यदि मनुष्य भगवान के कालस्वरूप का स्मरण करता रहे तो वह बहुत-सी बुराईयों से बच सकता है तथा उसका निश्चित ही कल्याण हो सकता है।
कंस ने भगवान के इसी स्वरूप का स्मरण करते हुए भगवत्प्राप्ति की। वह उठते-बैठते, खाते-पीते, सोते एवं काम करते, विचार करते समय-चैबीसों घंटे उन्हीं भगवान का चिंतन करता था। उससे भगवान का स्मरण प्रेम से नहीं, वैर से ही किया, तब भी उसका कल्याण हो गया।
काल की गति गहन है। जीव काल को नहीं जानता है। काल अजन्मा और अमर है। काल ही सबकी अवधि है। काल की अवधि में ही सब मृत्यु को प्राप्त होते हैं। काल ही सबकी मृत्यु को सिद्ध करता है। सदैव ही कालरूपी सर्प से डरते रहना चाहिये, क्योंकि कालरूपी सर्प कभी भी डंस सकता है। उसके दंश लगने से हमारी मृत्यु भी हो सकती है। मृत्यु होने के पश्चात कोई उपचार सम्भव नहीं हो सकेगा। इसलिये हमें चैतन्य-अवस्था में ही भगवान का स्मरण करना चाहिये ताकि कालरूपी सर्प से छुटकारा प्राप्त हो सके।