धुलेंडी

धुलेंडी

होलिका दहन के अगले दिन धुलेंडी मनाई जाती है। इस दिन लोग जमकर पानी और रंगो से होली खेलते हैं। धुलेंडी को धुरड्डी, धुरखेल, धूलिवंदन और चैत बदी आदि नामों से जाना जाता है। आज के समय में धुलेंडी का त्योहार एक दूसरे पर रंग और अबीर गुलाल डालकर मनाया जाता है, लेकिन पहले के समय में धुलेंडी का त्योहार बहुत ही अलग तरह से मनाया जाता था। उसी पंरपरा के नाम पर इस दिन को धुलेंडी कहा जाता है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार त्रेतायुग के आरंभ में भगवान विष्णु धूलि वंदन किया था। तभी से इस दिन धूलिवंदन यानि एक दूसरे पर धूल लगाने की पंरपरा शुरू हुई। एक दूसरे पर धूल लगाने के कारण ही इस दिन को धुलेंडी कहा जाता है।

पुराने समय में लोग जब एक दूसरे पर धूल  लगाते थे तो उसे धूलि स्नान कहा जाता था। आज भी कुछ जगहों पर खासतौर पर गांवो में लोग एक दूसरे धूल आदि लगाते हैं। पहले के समय में लोग शरीर पर चिकनी या मुल्तानी मिट्टी भी लगाया करते थे। इसके अलावा पहले के समय में इस दिन धूल के साथ टेसू के फूलों के रस से बने हुए रंग का उपयोग किया जाता था और रंगपंचमी पर अबीर गुलाल से होली खेली जाती थी। वर्तमान समय में धुलेंडी का रूप बदल गया है, लोग इस दिन भी रंगपंचमी के उत्सव की तरह ही रंगों से उत्सव मनाते हैं।

पहले धुलेंडी के दिन सूखा रंग केवल उन घरों में डालने की पंरपरा थी, जिन घरों में विगत वर्ष किसी की मृत्यु हुई हो। आज भी लोग धुलेंडी पर उन लोगों के घर मिलने जाते हैं और गुलाल से टीका लगाकर होली (धुलेंडी) की परंपरा का निर्वहन करते हैं। 

होलिका पूजन करने हेतु होलिका दहन वाले स्थान को गंगा जल से शुद्ध किया जाता है। फिर मोहल्ले के चौराहे पर होलिका पूजन के लिए डंडा स्थापित किया जाता है। उसमें उपले, लकड़ी एवं घास डालकर ढेर लगाया जाता है। 

होलिका दहन के लिए पेड़ों से टूट कर गिरी हुई लकड़‍ियां उपयोग में ली जाती है तथा हर दिन इस ढेर में कुछ-कुछ लकड़‍ियां डाली जाती हैं। होलाष्टक के दिन होलिका दहन के लिए 2 डंडे स्थापित किए जाते हैं। जिनमें एक को होलिका तथा दूसरे को प्रह्लाद माना जाता है।

पौराणिक शास्त्रीय मान्यताओं के अनुसार जिस क्षेत्र में होलिका दहन के लिए डंडा स्थापित हो जाता है, उस क्षेत्र में होलिका दहन तक कोई भी शुभ कार्य नहीं किया जाता। इन दिनों शुभ कार्य करने पर अपशकुन होता है।

प्रचलित मान्यता के अनुसार शिवजी ने अपनी तपस्या भंग करने का प्रयास करने पर कामदेव को फाल्गुन शुक्ल अष्टमी तिथि को भस्म कर दिया था। कामदेव प्रेम के देवता माने जाते हैं, इनके भस्म होने के कारण संसार में शोक की लहर फैल गई थी। जब कामदेव की पत्नी रति द्वारा भगवान शिव से क्षमायाचना की गई, तब शिवजी ने कामदेव को पुनर्जीवन प्रदान करने का आश्वासन दिया। इसके बाद लोगों ने खुशी मनाई। होलाष्टक का अंत धुलेंडी के साथ होने के पीछे एक कारण यह माना जाता है।