त्रिदेवों का जन्म की कथा
महर्षि अत्रि एक ऐसे ऋषि थे जो अपने नाम के अनुसार तीनों गुणों सतोगुण, रजोगुण, तमोगुण-से अलिप्त थे। उनको न किसी प्रकार की कामना थी, न किसी से राग-द्वेष था और न ही किसी प्रकार का लोभ-मोह था।
उनकी पत्नी अनसूया भी उसी प्रकार पति जैसा ही व्यवहार तथा विचार रखती थीं। एक बार ब्रह्मा जी ने उनकी ऐसी वृत्ति देखकर कहा-“हे मुनिवर! आप दोनों अब संतान उत्पन्न करें, जिससे आप जैसे सुयोग्य पुत्र पैदा हों और सदाचार को विस्तार हो।”
अत्रि ने कहा-‘हे ब्रह्मदेव! सृष्टि रचना के लिए आप स्वयं तथा संतति विस्तार के लिए दक्ष प्रजापति यह कार्य कर ही रहे हैं। हम तो तप करना चाहते हैं। यही हमारा सुख है और यही हमारे लिए श्रेष्ठ कर्म है।”
अत्रि ने कहा- “हे ब्रह्मदेव! सृष्टि रचना के लिए आप स्वयं तथा संतति विस्तार के लिए दक्ष प्रजापति यह कार्य कर ही रहे हैं। हम तो तप करना चाहते हैं। यही हमारा सुख है और यही हमारे लिए श्रेष्ठ कर्म है।”
ब्रह्मा जी ने कहा-“आपके ये विचार उत्तम हैं, आप तप-कर्म ही करें।”
अत्रि अपनी पत्नी सती अनसूया के साथ दण्डकारण्य के शान्त एकान्त निर्जन वन में एकाग्रचित्त होकर निष्काम भाव से तपस्या करने लगे। तप से कुछ फल पाने या वर पाने की उनकी कोई कामना न थी।
तपस्वी जीवन में उन्होंने धूप, शीत, वर्षा की भी परवाह नहीं की। प्राण वायु के सहारे अपने को जीवित रखा। अनेक वर्षों के पश्चात तीनों देव, ब्रह्मा, विष्णु और महेश ने प्रसन्न होकर उन्हें एक साथ दर्शन दिए। कहा-“अत्रि, उठो। तम्हारी इस कठोर तपस्या ने हम तीनों को प्रभावित किया, इसलिए हम तीनों एक साथ आपकी इच्छित मनोकामना पूरी करने आए हैं।”
अत्रि ने अनसूया के साथ आंखें खोली तो सामने सचमुच ब्रह्मा, विष्णु और महेश खड़े थे। अत्रि पत्नी सहित उनके चरणों पर गिर पड़े और भाव-विह्वल हो स्तुति करने लगे।
देवों से कहा-“प्रभो क्या मांगू? मुझे धन और यश की कामना नहीं और न ही देव-लोक, स्वर्ग-लोक तथा बैकुण्ठ में वास करने की इच्छा है। मोक्ष भी नहीं चाहिए। हमें आपका दर्शन हो गया है। हमारा तप सफल हुआ।”
देवों ने कहा-“अत्रि! कुछ न कुछ वर तो मांगना पड़ेगा, अन्यथा हमारे प्रसन्न होने की मर्यादा घट जाएगी। इसलिए कुछ मांगो अवश्य।”
अत्रि भाव-विह्वल होकर हाथ जोड़कर बोले-“समझ नहीं आ रहा है कि क्या मांगू। हमें तो आपके दर्शन की अभिलाषा थी, वह पूरी हुई। अब और कोई कामना नहीं है, फिर भी वर देने का इतना ही आग्रह है तो इच्छा है, इसी प्रकार नित्य आपके दर्शन हम दोनों करते रहें। इसलिए, प्रभो आप तीनों ही मेरे यहां पुत्र रूप में जन्म लें, आप सबकी बाल लीलाओं का नित्य आनंद दर्शन मिलता रहेगा। हे ब्रह्मदेव! आपने एक बार हमें सृष्टि करने का आदेश भी दिया था, इससे आपकी उस आज्ञा का पालन भी हो जाएगा।”
ब्रह्मा हंस पड़े। श्रीविष्णु और शिव ने अत्रि की यह प्रार्थना स्वीकार की और कहा- “भक्त की इच्छा अवश्य पूरी होगी।”
कुछ वर्ष पश्चात अनसूया की तीन संतानें हुईं। विष्णु के अंश से जन्मा बालक दत्तात्रेय, ब्रह्मा के अंश से जन्मे बालक का नाम चंद्रमा और शिव के अंश से जन्मे पुत्र का नाम दुर्वासा हुआ। इन तीनों पुत्रों के जन्म से अत्रि-अनसूया का जीवन धन्य हो गया। योगी-यति जिनका दर्शन एक बार पाने के लिए कठोर तपस्या करते हैं, वही तीनों देवता अत्रि-अनसूया के आंगन में बाल-रूप में किलकारियां मारते हुए रहते थे। इन तीनों बालकों के पालन-पोषण तथा उनकी बाल-लीलाओं को देखते हुए उन्हें अपार सुख मिलता था।