मन के मूल में कामना रहती है। इसी के अनुरूप शब्द ध्वनित होता है |
मनुष्य के अध्यात्म में शरीर, मन, बुद्धि और आत्मा होते हैं। शब्द के अध्यात्म में शब्द, अक्षर, ध्वनि और विचार होते हैं। शरीर और शब्द दोनों परिचयात्मक है। स्थूल है। शरीर के साथ नाम, रूप, रंग, जाति, धर्म, देश आदि जुड़ जाते हैं। इसी तरह शब्द के साथ भी रूप और अर्थ जुड़ जाते हैं। विषय का स्वरूप जुड़ जाता है। हम शब्द को पकडक़र रूप की चर्चा में चले जाते हैं। शब्द को छोड़ देते हैं। ओशो ने इसका एक अच्छा उदाहरण दिया है। एक शब्द है राम। कोई राम को गाली देकर देखे। हम शब्द छोडक़र राम में उलझ जाएंगे। वैसे राम एक शब्द ही है और वह भी हमारा बनाया हुआ है। राम के साथ जोड़ी हुई पहचान भी मानव निर्मित है। मूल में तो राम एक तरह की ध्वनि ही है। भारत में इस ध्वनि के लिए राम शब्द का उपयोग होता है। हर भाषा में इस ध्वनि का अपना अर्थ होगा।अक्षर सृष्टि हमारी सृष्टि अक्षर सृष्टि कहलाती है। भाषा भी अक्षर सृष्टि ही है। जिस प्रकार हमारी सृष्टि में कुछ भी नष्ट नहीं होता, वैसे ही अक्षर को फिर से व्यंजन नहीं बनाया जा सकता। हमारे अक्षरों का निर्माण ध्वनियों पर ही आधारित है। मंत्रों का भी अर्थ नहीं किया जा सकता। बीज मंत्रों का भी भाव अर्थ नहीं किया जा सकता। ये भी ध्वनि समूह है और स्पन्दन की गति के अनुरूप शरीर के स्पन्दन को प्रभावित करते हैं। स्पन्दन ही दोनों के अस्तित्त्व का आधार है। हर शब्द के मूल में अक्षर विज्ञान है। हर अक्षर के मूल में ध्वनि है। और यह भी आवश्यक नहीं है कि हर ध्वनि का अर्थ स्पष्ट ही हो।
व्यक्ति विचारों के सहारे बड़ा नहीं होता। विचार-विमर्श किसी निर्णय पर नहीं पहुंचता। निर्णय केवल प्रयोग से आते हैं। विज्ञान प्रयोग पर टिका है। बाहरी तत्त्वों पर उपकरणों की सहायता से प्रयोग करता है। धर्म भी प्रयोग पर टिका है। व्यक्ति स्वयं उपकरण हो जाता है। भीतर का प्रयोग करता है। दर्शन प्रयोग नहीं करता। केवल बातें करता है। परिणाम शून्य रहता है। हमारा सम्पूर्ण मंत्र शास्त्र ही ध्वनि के प्रयोगों का परिणाम है। भले ही ध्वनियां हमारी समझ में न आएं। किसी मंत्र का अर्थ दिखाई न दे, किन्तु परिणाम हमारे सामने होते हैं। हमारे सभी ऋषि यह भी कहते हैं कि ध्यान में बाहरी ज्ञान और दूसरों के अनुभव सहायता नहीं कर सकते।
हमारे विचार भी ध्वनियों का समूह ही हैं। हमारे प्राणों की गतिविधियों पर आधारित हैं। प्राणों के बारे में हम क्या समझ पाते हैं। न ही विचारों का भावनात्मक पहलू हम देख सकते हैं। अनुभव किया जाता है और स्वीकारा भी जाता है। उसे नकार नहीं सकते। मन की इच्छा को नकार नहीं सकते जिसके कारण विचार उठते हैं। मन के मूल में कामना रहती है। ध्वनि के मूल में भी कामना रहती है। ये हमारे मूल भावों के अनुरूप प्रकट होती है। इसी के अनुरूप शब्द ध्वनित होता है। एक ही शब्द अलग-अलग भावों में अलग-अलग स्वर से उच्चारित किया जाता है। ध्वनि के भी अर्थ बदल जाते हैं और शरीर की क्रियाएं भी।
ध्वनियांएक बात और महत्वपूर्ण है। ध्वनि सदा नाभि से उठती है। यह विसर्ग अथवा व्यंजन का क्षेत्र कहा जाता है। यही विसर्ग कण्ठ में जाकर आकार से मिलता है-अक्षर बनता है। इसे पुन: विसर्ग नहीं बना सकते। हमारा शरीर भी नाभि के माध्यम से ही तैयार होता है। मां के पेट में नाभि से जुड़ा रहता है। उसका सारा ज्ञान ध्वनि के माध्यम से ही अर्जित होता है। अत: नाभि ही ध्वनियों का उद्गम केन्द्र है। सारी ध्वनियां नाभि में आकर ही मिलती हैं। यह एक सूत्र है। ध्वनियां प्राकृतिक होती हैं। शब्द तो निर्मित किए जाते हैं। अत: वे नाभि तक नहीं पहुंच पाते। मस्तिष्क से निकलते हंभ और वहीं जाकर मिलते हैं।
हम शब्दों के सहारे जीते हैं। उनकी जो ध्वनियां निकलती हैं उनको नहीं जान पाते। तब शब्द-ब्रह्म कैसे समझ में आएगा। ओंकार की ध्वनि का कई प्रकार से अभ्यास कराया जाता है ताकि इसके स्पन्दन नाभि में अनुभव किए जा सकें। विभिन्न मंत्रोच्चार के माध्यम से शब्द और ध्वनियों को समझाया जाता है। जड ध्वनियां भी इस ज्ञान में सहयोगी होती हैं। घंटा, झालर जैसी तरंगित ध्वनियां भी शरीर में अपना मार्ग प्रकट करने में सहायक होती हैं। इस प्रकार शरीर के भीतर होने वाले अनाहत नाद को अनुभव करके भी ध्वनि का यात्रा मार्ग अनुभव किया जा सकता है।
एक बात निश्चित है। जो कुछ अपने आप घटित होता है, वही प्राकृतिक है। प्रयत्न हमारे होते हैं। प्रयत्न से भीतर की समझ प्राप्त नहीं हो सकती। स्वयं को सभी प्रयत्नों से, विचारों से मुक्त करना आवश्यक है। सारा ज्ञान व्यक्ति बाहर से ही बटोरता है। सारे प्रयत्न बाहर के लिए उपयोगी होते हैं। सारे प्रयत्न का केन्द्र मन है। वहां स्मृति और कल्पना का ही आधार रहता है। अतीत और भविष्य में भटकता है। वर्तमान खो जाता है। प्रयत्न एक गतिविधि है। भीतर जाने के लिए बाधा बन जाता है। जो भीतर है उसे प्रकट करना हमारा लक्ष्य है। इसके लिए मार्ग बनाना पड़ेगा। जो भीतर है उसे खाली करना पड़ेगा। विचार करना ही यथार्थ का मार्ग छोडऩा है। शब्द जाल में उलझना है। इसे शान्त करना पहली आवश्यकता है |