42 पहियों के रथ पर भाई-बहन के साथ चलते हैं पुरी के भगवान जगन्नाथ
पूरी के भगवान् जगन्नाथ की रथयात्रा की रथयात्रा का महत्त्व और इतिहास -
आषाढ़ माह में निकलती है रथयात्रा
हिंदू धार्मिक ग्रंथों और पंचांग के अनुसार आषाढ़ माह के शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को भगवान जगन्नाथ नगर भ्रमण पर निकलते हैं। इसीलिए पूरे देश में रथयात्रा निकली जाती है। रथयात्रा एकादशी को समाप्त होती है । भारत समेत कई देशों में भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकाली जाती है।
द्वापर युग से निकल रही रथयात्रा
भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा निकालने की परंपरा द्वापर युग से चली आ रही है। सबसे पहले द्वापर युग में ही रथयात्रा निकाली गई थी। ओडिशा के पुरी में सबसे भव्य और विशाल रथयात्रा का आयोजन प्रतिवर्ष किया जाता है। धार्मिक दृष्टि से इस यात्रा का खास महत्व है।
सुभद्रा की इच्छा पर 42 पहियों के रथ पर भम्रण
भगवान जगन्नाथ की रथयात्रा को लेकर दो कथाएं प्रचलित हैं। पहली कथा श्रद्धालुओं में सबसे ज्यादा प्रसिद्ध है। इसके अनुसार एक बार सुभद्रा ने भगवान श्रीकृष्ण से नगर घूमने की इच्छा जताई तो उन्होंने रजामंदी दी। यात्रा के लिए बलराम भी तैयार हो गए। भगवान के भ्रमण की जानकारी आमजनों को होने पर मार्ग में उनके जुटने की संभावना पर 42 पहिए लगाकर तीन बड़े रथ बनाए गए।
सबसे आगे चलते हैं बलराम
हिंदू धार्मिक ग्रंथों के अनुसार भगवान श्रीकृष्ण का रथ बड़ा बनाया गया। इसमें 16 पहिए लगाए गए, जबकि बलराम के रथ में 14 और सुभद्रा के रथ में 12 पहिए लगाए गए। यात्रा के दौरान सबसे आगे भगवान बलराम का रथ रहता है और उसके बाद सुभद्रा का और अंत में भगवान श्रीकृष्ण का रथ रहा। तब से यह परंपरा आज तक चल रही है।
नगर भ्रमण की प्रचलित कथा
दूसरी प्रचलित कथा के अनुसार एक धार्मिक अनुष्ठान के बाद भगवान जगन्नाथ को 108 कलशों से स्नान कराया गया था। इसके बाद उनके शरीर का ताप बढ़ गया। भगवान जगन्नाथ 15 दिनों तक महल से नहीं निकले। इससे उनके भक्त व्याकुल हो गए। आषाढ़ माह में शुक्ल पक्ष की द्वितीया तिथि को भगवान ने बहन सुभद्रा और भाई बलराम के साथ नगर भ्रमण कर भक्तों को दर्शन दिए।…