श्री राम और कंबंध राक्षस का प्रसंग
यह तब की बात है जब सीताजी को रावण, श्रीराम तथा लक्ष्मण की अनुपस्थिति मंं हरण कर ले गया था। जब तक दोनों वापस लौटे सीताजी कुटिया में नहीं थीं, यह देख श्रीराम व्याकुल हो उठे। वे समझ नहीं पा रहे थे कि आखिरकार सीता कहां गईं, और उनकी खोज में दोनों जंगल की ओर निकल गए।
कुछ दूर जाने पर उन्होंने एक गिद्ध को ज़ख्मी हालत में देखा, वह अपने आखिरी श्वास ले रहा था। वह था जटायू, उसने बताया कि उसने श्रीराम की पत्नी सीता को देखा है, लंका का दुष्ट राजा रावण उसे अपने साथ ले गया। वह सीताजी को रावण से छुड़ाने का प्रयास ही कर रहा था, जिस दौरान रावण ने उस पर तीखा प्रहार किया।
यह बताते हुए जटायु ने अपनी आखिरी सांसें लीं, जिसके बाद श्रीराम और लक्ष्मण ने जटायु का अंतिम संस्कार किया। अब वे यह तो जान गए थे कि सीताजी को रावण ले गया, लेकिन उन तक कैसे पहुंचा जाए यह नहीं जानते थे। लेकिन मन तो परेशान था, इसलिए पांव ना रुके और दोनों घने जंगल में सीताजी की तलाश में आगे बढ़ते चले गए।
कुछ दूर जाने पर अचानक उन्होंने एक अजीब से प्राणी को देखा, वह एक राक्षस था जिसका नाम था ‘कबंध’। महर्षि वाल्मीकि रचित रामायण के अनुसार यह राक्षस उस काल के सबसे अजीबोगरीब राक्षसों में से एक था।
इस राक्षस का सिर, घड़, मुख, कोई भी अंग सही स्थान पर नहीं था। कहते हैं कि इसका मुंह इसके पेट के स्थान पर था। और इसका दिमाग इसके सीने पर था तथा दोनों के बीचो-बीच थी इसकी आंख, लेकिन एक ही आंख। कहते हैं कि जब श्रीराम और लक्ष्मण ने उस राक्षस को देखा तो वह ज़ोर-ज़ोर से चिल्ला रहा था।
उसके दोनों हाथों में जंगली जीव थे जिन्हें वह इधर-उधर पटक रहा था, लेकिन जैसे ही उसकी नज़र श्रीराम और लक्ष्मण पर पड़ी तो वह उनकी ओर दौड़ा चला आया। अपने विशाल शरीर का फायदा उठाते हुए उसने दोनों को अपने हाथों में पकड़ लिया और तेज़ी से मसलने की कोशिश करने लगा।
लेकिन तभी बेहद कुशलता से श्रीराम और लक्ष्मण ने कबंध के दोनों हाथ काट दिए। हाथ कटकर धरती पर गिरे और दोनों राक्षस की कैद से छूट गए। दूसरी ओर कबंध स्वयं भी दर्द से कराहता हुआ ज़मीन पर आ गिरा। अपने सामने श्रीराम को देख वह समझ गया कि वे कौन हैं।
वह विनम्रतापूर्वक श्रीराम की ओर बढ़ा और बोला, ‘हे देव! मैं तो आप ही का इंतज़ार कर रहा था। मैं जानता था कि मुझ पापी को इस दण्ड से मुक्ति देने के लिए आप ज़रूर आएंगे’। कबंध ने बताया कि वह पिछले जन्म में एक ऋषि पुत्र था लेकिन वह कुछ दुष्ट मिज़ाज़ का था। वह तपस्या में लीन अन्य ऋषियों को तंग करता और राक्षसों जैसे वेश बनाकर उनकी साधना भंग करने पहुंच जाता।
उसकी इन्हीं हरकतों से तंग आकर एक ऋषि ने उसे हमेशा के लिए राक्षस बनने का श्राप दे दिया, जिस कारणवश वह इस अजीबोगरीब कबंध राक्षस के वेश में जंगल में भटक रहा था। लेकिन आज वह श्रीराम द्वारा मुक्त हुआ है, अपनी मुक्ति से प्रसन्न होकर उसने श्रीराम से वहां आने का कारण पूछा।
तब मालूम हुआ कि वे दोनों उस घने जंगल में माता सीता की खोज में आए हैं जिसे दैत्य रावण अपने साथ ले गया है। वजह जानने पर कबंध हैरान हो गया और श्रीराम को सचेत करने लगा कि रावण बेहद अहंकारी दैत्य है। वह काफी बलशाली है, ना केवल अन्य दैत्य बल्कि स्वयं देवता भी उससे भय खाते हैं।
उसने सभी देवताओं को भी परेशान किया हुआ है। उसने कहा कि वह जानता है कि श्रीराम अपनी पत्नी को रावण की कैद से छुड़ाने के लिए हर संभव प्रयास करेंगे। लेकिन फिर भी वह एक ऐसा सुझाव देना चाहता है जिससे उनके बंद हुए मार्ग खुलते जाएंगे और अंत में वे अपनी अर्धांगिनी को लेकर ही आएंगे।
रामायण ग्रंथ में कबंध तथा श्रीराम की इस वार्तालाप के ऊपर एक श्लोक मौजूद है – “गच्छ शीघ्रमितो वीर सुग्रीवं तं महाबलम्। वयस्यं तं कुरु क्षिप्रमितो गत्वाद्य राघव।।“
अर्थात् सुग्रीव ही वह शख़्स है जो उन्हें सीताजी तक पहुंचने में मदद कर सकता है। उन्हें उसकी सहायता जरूर लेनी चाहिए। कंबध ने आगे कहा कि ऐसा नहीं है कि श्रीराम अकेले अपनी पत्नी तक पहुंचने तथा दैत्य रावण के साथ संघर्ष करने के लिए सक्षम नहीं हैं, वरन् उसके इस सुझाव के पीछे एक खास कारण छिपा है।
इसमें कोई शक नहीं कि एक इंसान अपनी समझदारी का उपयोग करके एक बलवान को परास्त नहीं कर सकता, लेकिन उसकी समझदारी इसमें ही है कि वह उस बलवान को हराने के लिए सही विकल्पों का प्रयोग करे। अत: कबंध के अनुसार श्रीराम के लिए सुग्रीव एकमात्र ऐसा विकल्प था जो कठिनाई के इस मार्ग में उनके लिए सहायक सिद्ध होने वाला था।
लेकिन रामायण ग्रंथ का यह श्लोक हमें किसी को अपने स्वार्थ के लिए इस्तेमाल करना नहीं सिखाता। अपितु जब तक आप स्वयं किसी को पसंद नहीं करते, उसका साथ नहीं चाहते तब तक अपने स्वार्थ के लिए उसका उपयोग कतई ना करें।
लेकिन यदि आप स्वयं दिल से उस इंसान की सहायता लेने के लिए तैयार हैं, तो उसकी सहायता लेना कभी भी गलत नहीं होगा। श्रीराम ने भी कुछ ऐसा ही किया, उन्होंने तो सुग्रीव से मदद लेने से पहले स्वयं उसको अपना राज्य वापस पाने में मदद की। इसके बाद ही उन्होंने अपने मिलने का कारण बताया..