चावार्क की कहानी और उनका दर्शन
देवताओं का सर्वत्र आदर सम्मान तथा प्रतिष्ठा होती रहती थी। उन पर कभी विपत्ति पड़ने पर ब्रह्मा,विष्णु, महेश तक सहायता करते थे, यह सब देख असुरों ने सोचा कि हम भी अपने आचार-विचार देवताओं जैसे करते है, ताकि हमारी भी प्रतिष्ठा बढ़े तथा त्रय महादेव एवं त्रय महादेवियां हमारा विरोध न कर हमे सहयोग दे, हमारा मान करे। इन सबकी दृष्टि में हम भी सम्मानित हो।
ऐसा विचारकर असुरों ने आसुरी-वृत्तियों का त्याग करना शुरू किया तथा धर्म-मार्ग पर चलने लगे। देवताओं में ईर्ष्या-द्वेष तथा अपने को अन्य वर्गो से श्रेष्ठ समझने का अहंकार था। अब असुरो ने दुष्प्रवृत्ति को त्यागा और स्वभाव से सबके साथ विनयपूर्वक व्यवहार करते हुए धर्माचरण करने लगे। असुरों के इस कार्य और विचार से, उनकी प्रतिष्ठा बढ़ने लगी और वे देवताओं के बराबर प्रतिष्ठा पाने लगे। कभी-कभी तो देवताओं से भी अधिक सम्मान उन्हें मिलने लगा।
देवता इससे बड़े चिंतित हुए। कहां तो मान-सम्मान में उनका एकाधिकार था और अब सौतेले भाई भी उनकी बराबरी में आने लगे। देवताओं में द्वेष-भाव जागा। जब तक कोई बुरा पक्ष सामने न हो, तब तक अच्छाई का क्या महत्व और किसकी अपेक्षा श्रेष्ठ होने का अहंकार ? चूंकि असुर बुरे थे, इसलिए देवता अच्छे थे। पर जब असुरों ने देव-गुण अपना लिए तो वे भी इनके बराबर हो गए। देवताओं को असुरों की यह अच्छाई सहन न हुई।
देवता भगवान विष्णु के पास पहुंचे तथा असुरो के धर्ममार्गी होने की शिकायत की। यह सुनकर भगवान विष्णु ने कहा-“इसमें चिंता की क्या बात है, यह तो बड़ी अच्छी बात है। जो असुर तुम्हे सताते थे, तुम पर आक्रमण करते रहते थे, तुम्हे शांति से जीने नहीं देते थे, वे सब अब सन्मार्गी हो गए है। किसी को दुःख नहीं देते। तुम्हारे शत्रु अच्छे आचरण वाले हो गए है, यह तो तुम सबके लिए बड़ी प्रसन्नता की बात है।”
देवेंद्र ने कहा-“प्रभो ! यह तो ठीक है, पर उनके इस आचरण से हमारी श्रेष्ठता समाप्त हो रही है। वे भी हमारे समकक्ष हो रहे है। भूलोक में उन्हें भी प्रतिष्ठा मिल रही है। हमारी सत्ता को कोई चुनौती देने वाला भले ही न हो, पर हमारी बराबरी का कोई हो जाए, वह भी अपना शत्रु हो, यह तो दुःख की बात है। इसलिए प्रभो ! कोई उपाय कीजिए कि उनकी प्रतिष्ठा न बढ़े।”
देवताओं की बात सुनकर विष्णु हंसकर बोले-“तो यह बात है, दूसरों की बढ़ती हुई प्रतिष्ठा का दुःख तुम सबको है, मैं इसके लिए कुछ उपाय करता हूं। मैं माया पुरुष का सृजन कर उसे भूलोक भेजता हूं, वह वहां जाकर जैसा उचित होगा करेगा।”
देवगण आश्वस्त होकर चले गए। भगवान विष्णु ने एक माया-पुरुष का सृजन किया और उसे पृथ्वी पर भेज दिया। आर्यावर्त में वह ‘चावार्क’ के नाम से प्रसिद्ध हुआ।
चावार्क जब बड़ा हुआ तो उसने देखा कि यहां के लोग न जाने किस दिवा स्वप्न में जीते रहते है। जो कहीं दिखाई नहीं देता उसको पाने की लालसा में अपना वर्तमान जीवन कष्ट में बिता रहे है। सबके सब देवता तथा ईश्वर के चक्रव्यूह में फंसे है। उन्हें वर्तमान जीवन तथा यह संसार सब कुछ दुःख भरा लगता है तथा जिसे देखा नहीं, जिसके बारे में जानते नहीं, जो केवल उनकी कल्पना में बसता है, उस ईश्वर और स्वर्ग को पाने के लिए ये सब अपने वर्तमान जीवन को ही नरक जैसा भोग रहे है।
उसने संकल्प किया कि देवता, ईश्वर, आत्मा, परमात्मा, स्वर्ग, नर्क के दुष्चक्र को तोडना होगा। उसने वेदों. शास्त्रों, उपनिषदों, ऋषि-वाक्यो सबको झूठा कहा और यह घोषणा करता फिरा कि यह सब कुछ नहीं है, केवल हमारी कल्पना की उपज है। यह संसार सत्य है। इसमें जो कुछ है, वही सत्य है। इसके ऊपर आकाश में कुछ नहीं है।
उसके इस तर्क और विवेचन से लोग प्रभावित होने लगे। लोगो ने उसे ऋषियों जैसा सम्मान दिया। उसके नए विचारों का प्रभाव बढ़ने लगा। लोग ऋषि, वेद, पुराण, देवता, स्वर्ग, नर्क को झूठा समझने लगे। चावार्क की विचारधारा स्थापित होने लगी। वह कहता था- देव, ईश्वर कुछ नहीं है। यहां का सब कुछ तथा यह संसार प्रकृति की देन है। इस शून्य आकाश में पृथ्वी, जल, वायु, अग्नि के संयोग से जीव तथा वनस्पतियों का निर्माण होता है। इसी के संयोग में सबमे चेतना आती है। वही जब विखण्डित हो जाता है तो फिर सब शून्य में मिल जाता है। इसी को जन्म और मरण कहते है। प्रकृति में यह निर्माण और ध्वंस बराबर चलता रहता है। न कोई कहीं से आता है, न कोई कहीं जाता है। प्रकृति का सारा खेल यहीं होता रहता है। इसलिए ईश्वर, देवता, स्वर्ग, नर्क, वेद-शास्त्र किसी कल्पना में मत जियों। सुख से जीने के लिए ऋण भी लेना पड़े तो संकोच मत करो। यह संसार तथा यह जीवन ही सत्य है। इससे पर कुछ भी नहीं है।
इस प्रकार चावार्क ने आर्यावर्त में एक नई विचारधारा को जन्म दिया। इससे असुरों की प्रतिष्ठा को तो कोई आंच नहीं आई। हां, देवों, ऋषियों के अस्तित्व पर ही संकट आ गया। स्वर्ग-नर्क सबकी स्थापना व्यर्थ हुई। अपनी पद-प्रतिष्ठा, व्यवस्था तथा स्थापना को इस प्रकार समाप्त होते देख देवता बड़े विचलित हुए, वे भागे-भागे विष्णु के पास गए और कहा-“भगवान ! यह क्या किया ? चावार्क जैसा अधर्मी, नास्तिक भूलोक में क्या कर रहा है, इसका आपको कुछ पता है ? हमारी तो छोड़े, उसने तो आप परब्रह्म परमात्मा की सत्ता तक को नकार दिया है। कहता है, यह सब कल्पना है। जो है, जो दिख रहा है, वही सत्य है, इसी को सुख से भोगो। क्या यही उपाय करने का आश्वासन देकर हमे सन्तुष्ट किया था ? उसके सृजन से असुरों का तो कुछ नहीं बिगड़ा। भूलोक में मानवों में जो हमारी प्रतिष्ठा थी तथा जो आपकी सत्ता थी, उसने उस सबको झूठा कर दिया। ऐसा नास्तिक अधर्मी आपने कहां भेज दिया ?
देवताओं की बात सुनकर विष्णु को हंसी आ गई। कहने लगे-“मैने तो आप सबके कहने से उस माया पुरुष को भेजा था। अब वह नए सिद्धांत तथा जीवन-दर्शन की बात कह रहा है तो मैं क्या करुं ? वह नास्तिक नहीं है। किसी के अस्तित्व को न मानने का मतलब है कि उसके अस्तित्व को स्वीकार करना। पहले उसके होने को मानना कि वह है, फिर यह कहना की यह मिथ्या है। जो वस्तु विचार, कल्पना में आ गई, उसका मतलब है कि उसका अस्तित्व है। उसे वह उसके होने को स्वीकारता है, पर मानता नहीं। यही विचार का भेद है। यह उसका तर्क हो सकता है, उसका विचार हो सकता है, पर वह सब कुछ होने को कहीं न कहीं काल्पनिक रूप में ही सही स्वीकार तो करता ही है। मानने और स्वीकार करने के भेद को समझो।”
इसलिए हे देवो ! चावार्क के विचार से चिंतित मत होओ। यह उसका चिंतन है। किसी की कोई हानि नहीं होगी। जैसे देवलोक में भले-बुरे विचार वाले है, सुरी-आसुरी वृत्ति के लोग है, वैसे ही भूलोक में भी सब विचारधारा, स्वभाव तथा चिंतन के लोग है। सृष्टि में यह विभिन्नता निरन्तर बनी रहेगी। इससे चिंतित मत होओ। अपने आचार-विचार पर ध्यान दो। यही श्रेय मार्ग है।