श्रीकृष्ण के जीवन के अनजाने तथ्य
श्रीकृष्ण के जीवन के अनजाने तथ्य -
कॄष्ण के जन्म के समय और उनकी आयु के विषय में पुराणों व आधुनिक मिथकविज्ञानियों में मतभेद हैं। हालाँकि महाभारत के समय उनकी आयु ७२ वर्ष बताई गयी है। महाभारत के पश्चात पांडवों ने ३६ वर्ष शासन किया और कृष्ण की मृत्यु के तुरंत बाद ही उन्होंने भी अपने शरीर का त्याग कर दिया। इस गणना से कृष्ण की आयु उनकी मृत्यु के समय लगभग १०८ वर्ष थी। ये संख्या हिन्दू धर्म में बहुत ही पवित्र मानी जाती है। यही नहीं, परगमन के समय ना कृष्ण का एक भी बाल श्वेत था और ना ही शरीर पर कोई झुर्री थी।
भगवान विष्णु ने भगवान शिव से उनका बाल रूप देखने का अनुरोध किया और उनकी इच्छा पूरी करने के लिए भगवान शिव ने बालक के रूप गृहपति अवतार लिया। उसके बाद भगवान शिव ने भी भगवान विष्णु के बाल रूप को देखने की इच्छा जताई। पहले अयोध्या में श्रीराम के और फिर गोकुल में कृष्ण अवतार के बाल रूप को देखने के लिए स्वयं भगवान शिव वेश बदल कर पृथ्वी पर आये। श्रीराम और कृष्ण दोनों के आराध्यदेव भगवान शिव ही थे।
कृष्ण की त्वचा का रंग मेघश्यामल था और उनके शरीर से एक मादक गंध स्रावित होती थी अतः उन्हें अपने गुप्त अभियानों में इनको छुपाने का प्रयत्न करना पडता था, जैसे कि जरासंध अभियान के समय। ठीक ऐसी ही खूबियाँ द्रौपदी में भी थीं इसीलिये अज्ञातवास में उन्होंने सैरंध्री का कार्य चुना ताकि चंदन, उबटन आदि में उनकी गंध छुपी रहे। पाण्डवों की दादी सत्यवती के शरीर से भी ऐसी ही मादक गंध आती थी जो उन्हें महर्षि पराशर के आशीर्वाद से प्राप्त हुई थी।
सामान्यतः मृदु रहने वाली कॄष्ण की माँसपेशियाँ युद्ध के समय विस्तॄत हो जातीं थीं। यही कारण था कि स्त्रियों के समान दिखने वाला उनका लावण्यमय शरीर युद्ध के समय अत्यंत कठोर दिखाई देने लगता था।
कृष्ण की परदादी मारिषा और सौतेली माँ रोहिणी (बलराम की माँ) नाग जनजाति की थीं। कॄष्ण के पालक पिता नंद आभीर जाति से थे जिन्हें आज अहीर कहा जाता है जबकि उनके वास्तविक पिता वसुदेव ययाति के पुत्र यदु के वंशज थे। इसी कारण कृष्ण को यादव कहा जाता है।
कई लोग द्रौपदी को कृष्ण की बहन कहते हैं लेकिन ये सही नहीं है। कृष्ण द्रौपदी को अपनी सखी मानते थे। उनकी सौतेली बहन सुभद्रा के अतिरिक्त उनकी एक और बहन थी। उसका नाम एकानंगा था जो उनके पालक माँ-बाप यशोदा और नन्द की पुत्री थी। कही-कहीं उन्हें ही विंध्यवासिनी देवी के नाम से पूजा जाता है। जब कृष्ण सत्यभामा के साथ देवराज इंद्र के यहाँ से वापस लौट रहे थे तब एकानंगा उनसे मिलने आई थी।
कृष्ण की प्रसिद्ध बहन सुभुद्रा वास्तव में उनकी सौतेली एवं बलराम की सहोदर बहन थी (रोहिणी की पुत्री) और वो कृष्ण से २२ एवं बलराम से २३ वर्ष छोटी थीं। सुभद्रा का जन्म वसुदेव के कंस के कारागार से मुक्त होने के कई वर्ष बाद हुआ था।
कृष्ण बलराम से केवल १ वर्ष एवं ८ दिन छोटे थे पर वे उनका आदर अपने पिता की तरह करते थे।
बलराम की पत्नी रेवती उनसे वर्षों नहीं बल्कि युगों बड़ी थी। गर्ग संहिता के अनुसार रेवती के पिता ककुद्मी सतयुग में अपनी पुत्री के साथ ब्रह्मा जी से मिलने गए। वहाँ उन्होंने रेवती के लिए किसी योग्य वर की प्रार्थना की। ब्रह्मदेव ने हँसते हुए कहा कि जितना समय आपने यहाँ बिताया है उतने समय में पृथ्वी पर २७ युग बीत चुके हैं और अभी द्वापर का अंतिम चरण चल रहा है। आप शीघ्र पृथ्वी पर पहुंचिए। वहाँ शेषावतार बलराम आपकी पुत्री के सर्वथा योग्य हैं। जब रेवती पृथ्वी पर आकर बलराम से मिली तो उनकी लम्बाई में बड़ा अंतर था। द्वापर में जन्म लेने के कारण बलराम केवल ७ हाथ लम्बे थे जबकि सतयुग की होने के कारण रेवती २१ हाथ की थीं। बलराम ने अपने हल के दबाव से रेवती की ऊंचाई भी ७ हाथ की कर दी।
बलराम और रेवती की पुत्री का नाम वत्सला (शशिरेखा) था। सुनने में ये अजीब लगता है और इसका कोई वर्णन महाभारत में नहीं है पर दक्षिण भारत की दन्त कथाओं के अनुसार वत्सला का विवाह उसकी अपनी बुआ सुभद्रा के पुत्र अभिमन्यु के साथ हुआ था जो उसका भाई भी था। बलराम ने वत्सला का विवाह दुर्योधन के पुत्र लक्षमण के साथ तय किया। इससे अभिमन्यु बड़ा दुखी हो गया किन्तु जब घटोत्कच्छ ने देखा कि उसका भाई बड़ा व्यथित है तो उसने विवाह से पूर्व वत्सला का अपहरण कर लिया और फिर उसका विवाह अभिमन्यु से करवा दिया।
कॄष्ण की प्रेमिका राधा का जिक्र वास्तव में महाभारत में है ही नहीं। राधा का उल्लेख ब्रह्मवैवर्त पुराण, गीत गोविंद और जनश्रुतियों में रहा है। राधा कृष्ण से ७ वर्ष बडी थीं और कृष्ण के गोकुल से चले जाने के बाद उनका विवाह रायण या अय्यन नाम के गोप से हुआ था। इसके पश्चात केवल एक बार ही राधा कृष्ण से द्वारका में आकर मिली थी जहाँ सत्यभामा ने उनकी परीक्षा ली और मुँह की खाई। परीक्षा के बाद कृष्ण ने सत्यभामा से कहा था कि फिर कभी राधा का अपमान करने का प्रयत्न ना करे क्यूंकि उनके ह्रदय में सदैव राधा रहती है।
कॄष्ण के प्रथम पुत्र प्रद्युम्न का अपहरण जन्म के तुरंत बाद मय दानव के द्वारा कर लिया गया। कहते है कि प्रद्युम्न को रुक्मिणी ने देखा भी नहीं था। मय दानव के यहाँ उसका पालन पोषण उसकी दासी माया ने किया। माया, जो कि रति का अवतार थी, जानती थी कि प्रद्युम्न ही कामदेव का अवतार है और इसी कारण उसने प्रद्युम्न का पालन पोषण मातृत्व के भाव से नहीं किया। बड़े होने के बाद प्रद्युम्न ने माया से विवाह किया और १६ वर्ष बाद वापस लौटे। माया उम्र में प्रद्युम्न से तो क्या, उसकी अपनी माँ रुक्मिणी से भी बड़ी थी। कहा जाता है कि रुक्मिणी ने प्रद्युम्न को देखते ही पहचान लिया क्यूँकि उसकी शक्ल कृष्ण से बहुत अधिक मिलती थी।
जहाँ प्रद्युम्न की शक्ल कृष्ण से अत्यधिक मिलती थी, प्रद्युम्न के पुत्र अनिरुद्ध अपने दादा कृष्ण के प्रतिलिपि ही थे। जब बाणासुर की पुत्री उषा ने अपनी सखी से कहा कि उसने स्वप्न में एक अति सुन्दर राजकुमार देखा है और वो उससे ही विवाह करेगी तो उसकी सखी ने पहले उसे प्रद्युम्न का चित्र बना कर दिखाया जिसे देख कर उसने कहा कि इनकी शक्ल उस स्वप्न वाले पुरुष से बहुत मिलती है पर ये वो नहीं है। फिर उसने कृष्ण का चित्र बनाया जिसे देख कर उषा ने लज्जा से सर झुका लिया। फिर उसने कहा कि हाँ ये वही व्यक्ति है पर ना जाने क्यों इसे देख कर उसके मन में पितृ तुल्य आदर का भाव आ रहा है। ये सुन कर उसकी सखी समझ गयी कि उषा ने स्वप्न में अनिरुद्ध को देखा है।
जैन धर्म के २२ वें तीर्थंकर स्वामी नेमिनाथ कृष्ण के चचेरे भाई थे जिनके साथ कृष्ण बहुत समय बिताया करते थे और शास्त्रार्थ किया करते थे। बहुत लोग समझते हैं कि महावीर जैन धर्म के संस्थापक थे किन्तु ये गलत है। महावीर जैन धर्म के २४ वे और सर्वाधिक प्रसिद्ध तीर्थंकर थे। जैन धर्म की स्थापना स्वामी ऋषभनाथ (आदिनाथ) ने की थी। हिन्दू धर्म में नेमिनाथ को "घोर अंगिरस" के नाम से भी जाना जाता है और उनकी आयु १००० वर्ष बताई गई है।
कॄष्ण अंतिम वर्षों को छोड़कर कभी भी द्वारिका में ६ महीने से ज्यादा नहीं रहे। १६ वर्ष की आयु में गोकुल को छोड़ने के बाद कृष्ण कभी भी वापस नहीं गए। वे दुबारा अपने पालक नन्द, यशोदा और अपनी बहन एकनंगा से नहीं मिले। हालाँकि उन्होंने एक बार उद्धव को वहाँ भेजा था जिसे लोगो ने कृष्ण ही समझ लिया क्यूंकि उद्धव की काया भी कृष्ण से बहुत मिलती थी। कृष्ण के बड़े भाई बलराम अपने जीवन में केवल एक बार गोकुल गए थे।
देवर्षि नारद से वार्तालाप में उन्होंने स्वीकार किया था कि वे अपनों यादव बंधुओं (सात्यिकी, कृतवर्मा, अक्रूर, सत्राजित आदि) के कृत्यों से ही सर्वाधिक क्षुब्ध थे। कृष्ण अपनी पत्नी सत्यभामा से सर्वाधिक प्रेम करते थे किन्तु अधिक क्षुब्द भी उन्ही से थे। अपने पुत्रों में कृष्ण जांबवंती के पुत्र साम्ब से सर्वाधिक दुखी थे। साम्ब ने उनकी इच्छा के विरुद्ध दुर्योधन की पुत्री लक्ष्मणा से विवाह किया और वही एक ऋषि के श्राप के कारण पूरे यादव वंश के विनाश का कारण भी बना।
जब साम्ब लक्ष्मणा से विवाह करने हस्तिनापुर गया तो दुर्योधन ने उसे बंदी बना लिया। कृष्ण हस्तिनापुर के लिए जाने वाले थे कि बलराम उन्हें द्वारका में ही रोक कर स्वयं हस्तिनापुर गए। जब दुर्योधन ने साम्ब को मुक्त करने से इंकार किया तो बलराम ने अपने हल से हस्तिनापुर को गंगा की ओर झुका दिया जिससे हस्तिनापुर गंगा में डूबने के कगार पर पहुँच गया। बाद में भीष्म के बीच-बचाव के बाद दुर्योधन ने साम्ब को मुक्त किया और लक्ष्मणा का विवाह भी उससे कर दिया। वर्त्तमान के हस्तिनापुर की भूमि अभी भी गंगा के छोर की तरफ झुकी हुई है।
ऋषि और गांधारी के श्राप के कारण अंत समय में उनके पुत्र साम्ब के गर्भ से एक मूसल पैदा हुआ और देखते ही देखते मूसल का ढेर लग गया। वहीं समुद्र किनारे सारे यादव वीर उन्ही मूसलों से आपस में लड़ने लगे जिससे क्षुब्द होकर कृष्ण और बलराम ने वही उगी घास को उखाड़ कर स्वयं सभी यादवों का संहार कर दिया। इसके बाद पहले बलराम और फिर कृष्ण ने भी संसार का त्याग कर दिया। महाभारत के मौसल पर्व में इसका विस्तृत वर्णन है। इसके बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ें।
कॄष्ण के वंश में एकमात्र जीवित व्यक्ति उनका प्रपौत्र वज्रनाभ था जिसे युधिष्ठिर ने इंद्रप्रस्थ के सिंहासन पर बैठाया। हस्तिनापुर शासन अर्जुन के पौत्र और पांडव कुल के एकमात्र जीवित व्यक्ति परीक्षित को मिला।
युधिष्ठिर के राजसु यज्ञ में सभी करने के लिए अलग अलग काम दिए गए थे। दुर्योधन को धन का प्रबंधन और कर्ण को ऋषियों और याचकों को दान देने का काम दिया गया। कृष्ण उस यज्ञ में अग्रदेवता थे फिर भी उन्होंने स्वयं ब्राम्हणों और ऋषियों के पैर धोने का कार्य लिया। यज्ञ में ऋषि कणाद को भी मना कर वही लाये थे।
केवल कृष्ण को ही भगवान विष्णु का परमावतार और उनके सर्वाधिक समकक्ष माना जाता है क्यूंकि वे नारायण के १६ कलाओं से युक्त थे। उन्होंने अपने गुरु संदीपनी के आश्रम में केवल ६४ दिनों में ६४ विद्याओं का ज्ञान अर्जित कर लिया था।
अनुश्रुतियों के अनुसार कॄष्ण ने आधुनिक "मार्शल-आर्ट" का विकास ब्रज क्षेत्र के वनों में किया था और रासलीला और डांडिया उसी का नॄत्य रूप है। "कलारीपट्टु" का प्रथम आचार्य कृष्ण को ही माना जाता है और इसी कारण द्वारका की "नारायणी सेना" आर्यावर्त की सबसे भयंकर प्रहारक सेना बन गयी थी।
कृष्ण के रथ का नाम "जैत्र" था और उनके सारथी का नाम दारुक (बाहुक) था। उनके रथ में चार अश्व जुते रहते थे जिनके नाम शैव्य, सुग्रीव, मेघपुष्प और बलाहक थे। कॄष्ण के धनुष का नाम श्राङ्ग, खड्ग का नाम नन्दक, गदा का नाम कौमोदकी और शंख का नाम पाञ्चजन्य था जो गुलाबी रंग का था। उनका मुख्य आयुध सुदर्शन चक्र था। ये सभी दिव्यास्त्र भगवान् विष्णु के थे जो बाद में कृष्ण को मिले।
श्राङ्ग भगवान विष्णु का धनुष था और पिनाक भगवान शिव का और दोनों का निर्माण विश्वकर्मा ने साथ साथ किया। एक बार ब्रम्हा जी ने जानना चाहा कि दोनों में से कौन सा धनुष श्रेष्ठ है। इसके लिए भगवान् विष्णु और भगवान् शिव में अपने अपने धनुष से युद्ध हुआ। युद्ध इतना विनाशकारी था कि स्वयं ब्रम्हा जी ने प्रार्थना कर युद्ध को रुकवाया नहीं तो समस्त सृष्टि का नाश हो जाता। बाद में शिवजी के पूछने पर ब्रम्हा जी ने श्राङ्ग को पिनाक से श्रेष्ठ बता दिया क्यूंकि युद्ध के बीच में भगवान् शिव श्राङ्ग का सौंदर्य देखने के लिए एक क्षण के लिए स्तंभित हो गए थे। इससे रुष्ट होकर महादेव ने पिनाक धनुष को जनक के पूर्वज देवरात को दे दिया और साथ ही ये भी कहा कि अब इस धनुष का विनाश भी विष्णु ही करेंगे। बाद में भगवान् विष्णु ने श्रीराम का अवतार ले उस धनुष को भंग किया। महाभारत में श्राङ्ग को कृष्ण के अतिरिक्त केवल परशुराम, भीष्म, द्रोण, कर्ण एवं अर्जुन ही संभाल सकते थे।
कौमोदकी को विश्व का प्रथम और सबसे शक्तिशाली गदा माना जाता है जिसका निर्माण स्वयं भगवान ब्रम्हा ने नारायण के लिए किया था। भगवान विष्णु से वो गदा कृष्ण को प्राप्त हुई। महाभारत में कृष्ण के अतिरिक्त कौमोदकी को केवल बलराम और भीम ही उठा सकते थे।
नन्दक को विश्वकर्मा ने भगवान विष्णु के लिए बनाया था। इसी खड्ग से उन्होंने मधु और कैटभ नमक दैत्यों का वध किया था। रामायण में ये खड्ग महर्षि अगस्त्य ने श्रीराम को दिया था और महाभारत में ये कृष्ण को मिला था। यह इतना तेज था कि अपने मार्ग में आने वाली हर वस्तु को नष्ट कर देता था।
कृष्ण का प्रमुख अस्त्र सुदर्शन चक्र पूरे विश्व में प्रसिद्ध था। जब सारे ओर दैत्यों का आतंक बढ़ गया और भगवान विष्णु उन्हें अपने साधारण अस्त्रों से नहीं मार पाए तब उन्होंने भगवान शिव की १००० वर्षों तक तपस्या की। जब रूद्र ने उनसे वरदान मांगने को बोला तो उन्होंने कहा कि उन्हें एक ऐसा दिव्यास्त्र चाहिए जिससे वे राक्षसों का नाश कर सकें। इसपर भगवान् शिव ने अपने तीसरे नेत्र की ज्वाला से सुदर्शन चक्र को उत्पन्न किया जिसमे १०८ आरे थे और इसे नारायण को दिया जिससे उन्होंने सभी राक्षसों का नाश किया। ये चक्र उन्होंने परशुराम को दिया और फिर परशुराम से इसे कृष्ण को प्राप्त हुआ। ये इतना शक्तिशाली था कि त्रिदेवों के महास्त्र (ब्रम्हास्त्र, नारायणास्त्र एवं पाशुपतास्त्र) के अतिरिक्त केवल इंद्र का वज्र और रूद्र का त्रिशूल ही इसके सामने टिक सकता था। महाभारत में कृष्ण के अतिरिक्त केवल परशुराम ही इसे धारण कर सकते थे।
कृष्ण ने पवनपुत्र हनुमान की सहायता से सत्यभामा, गरुड़, बलराम, अर्जुन एवं सुदर्शन चक्र का अभिमान तोड़ा। सत्यभामा को अपनी सुंदरता का, गरुड़ को अपनी गति का, बलराम को अपनी शक्ति का, अर्जुन को अपनी धनुर्विद्या का और सुदर्शन को अपनी मारक क्षमता का गर्व था। बलराम ने पौंड्र के सेनापति जिसे वो हनुमान ही मानता था, केवल एक प्रहार में वध किया था। कृष्ण की इच्छा से हनुमान साधारण वानर के रूप में उनसे लड़े जिससे बलराम को समझ आ गया कि वो अकेले सर्वश्रेष्ठ नही है। अर्जुन के बाणों से बने बांध को हनुमान से सिर्फ एक अंगुली से तोड़ उनका घमंड दूर किया। कृष्ण की आज्ञा से गरुड़ हनुमान को निमंत्रण देने गए और कहा कि श्रीराम ने आपको बुलाया है इसीलिए आप मेरे पीठ पर बैठ जाये ताकि मैं आपको उनके पास ले जाऊं। हनुमान ने कहा कि तुम चलो मैं पीछे आता हूँ। गरुड़ अपनी पूरी शक्ति से उड़ा पर द्वारका पहुंचने पर हनुमान को वहाँ खुद से पहले पहुँचा देख उसका घमंड भी टूटा। सुदर्शन ने उन्हें रोकने की कोशिश की पर रुद्रावतार ने सुदर्शन को अपने मुँह में दबा लिया और अंदर पहुँचे। वहाँ कृष्ण श्रीराम और सत्यभामा सीता के रूप में बैठे थे। हनुमान ने पहुँचे ही कृष्ण को प्रणाम कर कहा कि हे प्रभु! आपने किस दासी को अपने पास बिठा रखा है। ये तो माता सीता के १६ वें अंश के बराबर भी नही। इससे सत्यभामा का अभिमान भी टूट गया।
अर्जुन को विश्व का सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर माना जाता है किन्तु मद्र की राजकुमारी लक्ष्मणा के स्वयंवर में अर्जुन भी लक्षवेध नहीं कर पाए थे। फिर कृष्ण ने लक्षवेध कर लक्ष्मणा से विवाह किया जो पहले से ही उन्हें अपना पति मान चुकी थी।
कृष्ण की पत्नी रुक्मिणी के बड़े भाई रुक्मी कृष्ण के विरोधी थे। बाद में सुलह होने के बाद उन्होंने कृष्ण और बलराम को चौसर खेलने बुलाया। कृष्ण ने जाने से मना कर दिया पर उनके मना करने के बाद भी बलराम खेलने गए। बलराम चौसर में कुशल नहीं थे इसीलिए वो बार-बार हार रहे थे और रुक्मी हर बार उनकी खिल्ली उड़ा रहा था जिस कारण वे अत्यंत क्रोध में थे। अंत में बलराम ने खेल ख़त्म करने के लिए अपने पास से आखिरी १००००० स्वर्ण मुद्राएं दाँव पर लगा दी और जीत गए। रुक्मी ने छल से पाँसे बदल दिए और कहने लगा कि वो जीता है। इसपर क्रोधित बलराम ने वही पड़े कांसे के पात्र से रुक्मी का वध कर दिया। बाद में वे बड़ा पछताए और फिर कभी चौसर ना खेलने की प्रतिज्ञा की। इसीलिए जब उन्हें पता चला कि पाण्डव जुए में अपना सब कुछ यहाँ तक की अपनी पत्नी को भी हार गए हैं तो बलराम ने दुर्योधन से अधिक युधिष्ठिर को ही दोषी माना।
कृष्ण ने कई युद्ध लड़े किन्तु महाभारत के अतिरिक्त जो अन्य महा भयंकर युद्ध थे वो उन्होंने जरासंध, कालयवन, नरकासुर, पौंड्रक, शाल्व और बाणासुर के विरुद्ध लड़ा। कंस, चाणूर और मुष्टिक जैसे विश्वप्रसिद्ध मल्लों का वध भी उन्होंने केवल १६ वर्ष की आयु में कर दिया था।
बाणासुर के विरूद्ध तो उन्हें स्वयं भगवान शिव से युद्ध लड़ना पड़ा और भगवान रूद्र के कारण ही बाणासुर के प्राण बच पाए। आज वैज्ञानिक जैविक युद्ध की बात करते है पर युगों पहले उस युद्ध में भगवान शिव के महेश्वरज्वर के विरुद्ध उन्होंने वैष्णवज्वर का प्रयोग कर दिया था जो संसार का पहला जीवाणु युद्ध था। इस बारे में विस्तार से यहाँ पढ़ें।
अर्जुन कृष्ण के सबसे बड़े भक्त थे किन्तु कॄष्ण के जीवन का सबसे भयानक द्वंद युद्ध सुभुद्रा की प्रतिज्ञा के कारण अर्जुन के साथ ही हुआ था जिसमें दोनों ने अपने अपने सबसे विनाशक शस्त्र क्रमशः सुदर्शन चक्र और ब्रम्हास्त्र निकाल लिये थे। बाद में इंद्र के हस्तक्षेप से दोंनों शांत हुए।
गोकुल में इंद्र के प्रकोप से लोगों को बचाने के लिए उन्होंने अपनी कनिष्ठा अँगुली पर गोवर्धन को पूरे सात दिनों तक उठाये रखा। कृष्ण हर प्रहर अर्थात दिन में ८ बार भोजन करते थे। जब गोकुल वासियों ने देखा कि उनके कारण कृष्ण ७ दिनों से भूखे हैं तो गोवर्धन की पुनः स्थापना के बाद उन्होंने कृष्ण के ८ बार के हिसाब से ५६ तरह के पकवान बना कर खिलाये। तभी से कृष्ण को ५६ भोग चढाने की परंपरा शुरू हुई।
कृष्ण की पटरानी रुक्मिणी थी। उनके अतिरिक्त उनकी तीन मुख्य रानियों में जांबवंती और सत्यभामा की गणना की जाती है। मुख्य आठ रानियों में इन तीनो के अतिरिक्त सत्या, कालिंदी, लक्ष्मणा, मित्रविन्दा एवं भद्रा की गिनती की जाती है। उनकी १०० अन्य मुख्य रानियाँ भी थी तो इस प्रकार उनकी मुख्य पत्नियों की सँख्या १०८ बताई जाती है। इसके अतिरिक्त नरकासुर का वध कर उन्होंने वहाँ से छुड़ाई गयी १६००० कन्याओं से भी विवाह किया क्युकि किसी अन्य ने उन्हें स्वीकार नहीं किया। कृष्ण अपनी माया से हर रात्रि अपनी हर रानी से साथ रहते थे। उन्होंने प्रत्येक पत्नी से १०-१० पुत्र प्राप्त किये जिसकी संख्या १६१०८० होती है। दुर्भाग्यवश उन्हें स्वयं सभी का नाश करना पड़ा। श्रीकृष्ण की पत्नियों और पुत्रों के विषय में विस्तार से यहाँ पढ़ें।
महाभारत के युद्ध में उन्होंने अर्जुन को गीता ज्ञान दिया। अंत में अपना विराट स्वरुप दिखाने के लिए उन्होंने अर्जुन को दिव्य दृष्टि प्रदान की क्यूंकि उनका वो रूप साधारण दृष्टि से नहीं देखा जा सकता था। यही कारण था कि अर्जुन और देवताओं के अतिरिक्त केवल और कुछ सिद्ध ऋषि ही उनका ये रूप देख पाए। साधारण मनुष्यों में केवल सञ्जय ने उनका दिव्य स्वरुप देखा क्यूंकि उन्हें महर्षि वेदव्यास ने दिव्य दृष्टि प्रदान की थी।
महाभारत युद्ध में कर्ण ने कृष्ण से प्रार्थना की की मरने के बाद उसका अंतिम संस्कार ऐसी जगह हो जहाँ कोई पाप ना हो। संसार में ऐसी कोई जगह नहीं थी जहाँ पाप ना हो इसीलिए कृष्ण ने कर्ण का अंतिम संस्कार अपने हाँथों पर किया था।
एकलव्य को सभी जानते हैं जिनसे गुरु द्रोण ने उसका अँगूठा मांग लिया था। उसके बाद भी एकलव्य धनुर्विद्या में प्रवीण हो गया और जरासंध के सेना में प्रमुख योद्धा बन गया। उसने जरासंध और शिशुपाल के साथ मथुरा पर आक्रमण किया। जब कृष्ण रणक्षेत्र में आये तो एकलव्य को चार अंगलियों से बाण चलाते देख आश्चर्यचकित रह गए। एकलव्य को बलराम ने अपनी गदा से दूर फेंक दिया पर वह वापस आकर कृष्ण के पुत्र साम्ब पर टूट पड़ा। अपने पुत्र को बचाने के लिए कृष्ण ने शिला से एकलव्य के सर पर प्रहार किया जिससे उसकी मृत्यु हो गयी। महाभारत के बाद अर्जुन से बात करते हुए कृष्ण कहते हैं कि तुम्हारे लिए मैंने क्या-क्या नहीं किया? भीष्म, द्रोण और कर्ण को छल से मरवाया। और तो और तुम ही सर्वश्रेष्ठ धनुर्धर रह सको इसके लिए मैंने स्वयं एकलव्य का वध भी कर दिया।
श्रीकृष्ण को भगवान विष्णु का परमावतार या पूर्णावतार कहते हैं क्यूंकि कृष्ण अवतार ही नारायण के सर्वाधिक निकट माना जाता है। कहा जाता है कि श्रीराम भगवान विष्णु के १२ गुणों के साथ अवतरित हुए इसीलिए उनमें मानवीय गुण अधिक था और उन्हें पुरुषोत्तम कहा गया किन्तु श्रीकृष्ण भगवान नारायण के सभी १६ गुणों के साथ जन्में जिस कारण उन्हें परमावतार कहा गया। यही कारण है कि जहाँ श्रीराम को सभी दिव्यास्त्र तपस्या अथवा गुरु से प्राप्त करने पड़े वहीँ श्रीकृष्ण को वो स्वतः ही मिल गए।
कृष्ण ने काशी के राजा और वहाँ के पाखंडी ब्राह्मणों के विरुद्ध अभियान किया और अपने सुदर्शन चक्र से काशी को जलाकर राख कर दिया किन्तु भगवान शिव के त्रिशूल पर टिके होने के कारण वे उसे पूरी तरह नष्ट नहीं कर सके। इस प्रकार महादेव के कारण काशी की रक्षा हुई और उनकी कृपा के कारण ही ये नगरी प्रलय में भी नष्ट नहीं होती।