बुद्ध के अवशेष संरक्षित करता साँची का भव्य स्तूप
साँची! मध्यप्रदेश प्रदेश के विदिशा जिले में, भोपाल के निकट स्थित एक छोटी सी नगरी। वर्तमान में जहाँ विदिशा नगर स्थित है, वहाँ से लगभग ३ किलोमीटर दूर बेसनगर नामक एक गाँव है जहाँ प्राचीन विदिशा बसी हुई थी। प्राचीन काल में यह एक लोकप्रिय व्यावसायिक केंद्र था। इसके समीप स्थित साँची नगरी बौद्ध स्तूपों के लिए प्रसिद्ध है। एक पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित इन स्तूपों में से विशालतम स्तूप को साँची स्तूप कहते हैं।
साँची स्तूप को महान स्तूप भी कहते हैं।
साँची स्तूप का निर्माण किसने कराया?
राजा अशोक ने सम्पूर्ण भारत में अनेक स्थानों पर स्तूपों का निर्माण कराया था जिनके भीतर बुद्ध के अवशेषों को संरक्षित किया था। उन सभी बौद्ध स्तूपों में साँची स्तूप को सर्वोत्तम संरक्षित स्तूपों में से एक माना जा सकता है। तीसरी शताब्दी में अशोक ने इस स्तूप की नींव रखी थी। अशोक के पश्चात अनेक राजाओं ने इस स्तूप पर संवृद्धिकरण का कार्य अनवरत जारी रखा। नवीन कटघरों एवं विविध शिल्पों का संयोग करते हुए इसके आकार में वृद्धि करते रहे।
सम्राट अशोक का विवाह देवी से हुआ था जो विदिशा के एक व्यापारी की पुत्री थी। अशोक से विवाह के पश्चात भी देवी ने अनवरत विदिशा में ही निवास किया।
ऐसा कहा जाता है कि अशोक ने यहाँ के शैल स्तंभों में से एक स्तंभ को स्थापित किया था जो दुर्भाग्य से अब यहाँ उपस्थित नहीं है। इस स्तूप के अशोक से संबंध की पुष्टिकरण चुनार के बलुआ शिलाओं की यहाँ उपस्थिति एवं मौर्य शैली की चमक से भी होती है। ये तत्व हम बराबर गुफाओं में देख चुके हैं।
यह अत्यंत अचरज का विषय है कि ७वीं सदी के चीनी यात्री ह्वेन त्सांग ने इस स्तूप का उल्लेख कहीं नहीं किया है। क्या वह साँची कभी आ नहीं पाया या उस काल तक इस स्तूप की आध्यात्मिक महत्ता समाप्त हो गयी थी?
साँची में स्थित अन्य लघु स्तूपों के भीतर बुद्ध के शिष्यों, अन्य बौद्ध भिक्षुओं तथा बौद्ध गुरुओं के अवशेष हैं। स्तूप के चारों ओर आराधना स्थल एवं मठ हैं। इससे यह संकेत प्राप्त होता है कि लगभग २००० वर्षों पूर्व यह बौद्ध धर्म के पालन एवं अध्ययन का केंद्र था। विडम्बना यह है कि बुद्ध ने स्वयं कभी इस स्तूप का अथवा इस क्षेत्र का भ्रमण नहीं किया है।
मथुरा के संग्रहालय में प्रदर्शित चित्र यह दर्शाते हैं कि इस क्षेत्र को भी गुप्त राजाओं का संरक्षण प्राप्त था। किन्तु गांधार, मथुरा एवं सारनाथ जैसे क्षेत्रों में प्रफुल्लित स्वशैली के विपरीत साँची अपनी स्वयं की शैली विकसित करने में असफल रही।
१४वीं से १९वीं शताब्दी के मध्य साँची का यह स्तूप हमारे इतिहास में कहीं लुप्त हो गया था। सन् १८१८ में जनरल टेलर ने स्तूप क्रमांक १,२ एवं ३ के अवशेषों का अन्वेषण किया था। आगामी १०० वर्षों तक इस स्थान पर विविध उत्खनन एवं जीर्णोद्धार के कार्य किया गए। अनेक बौद्ध मंदिरों, मठों, मन्नत के स्तूपों, भित्तियों एवं आवास गृहों को उत्खनित किया गया एवं उनका पुनरुद्धार किया गया। उत्खनन स्थल से बड़ी मात्रा में मिट्टी के पात्रों के अवशेष, सिक्के, पात्र इत्यादि प्राप्त हुए।
साँची पहाड़ी के स्मारक
साँची पहाड़ी पर स्थित स्मारकों को दो विभागों में बाँटा जा सकता है। प्रथम विभाग जिसके स्तूप पहाड़ी के शीर्ष पर स्थित हैं, जैसे मुख्य स्तूप। दूसरा विभाग जिसके स्तूप पहाड़ी की पश्चिमी ढलान पर स्थित हैं।
पहाड़ी के शीर्ष पर आयताकार पठार है जो लगभग ४०० मीटर लम्बा एवं २०० मीटर चौड़ा है। यह पठार गोलाकार भित्तियों द्वारा सीमाबंध है। अधिकतर स्मारक इसी भित्ति के भीतर स्थित है। चिकनी घाटी से एक प्राचीन पथ हमें पहाड़ी के शीर्ष तक ले जाता है।
अंग्रेज अधिकारियों ने पहाड़ी के शीर्ष तक पहुँचने के लिए एक शैल पदपथ का निर्माण किया था। उसके स्थान पर अब एक चौड़ा मार्ग है जिसके द्वारा वाहन भी पहाड़ी के शीर्ष तक पहुँच सकते हैं।
पहाड़ी की पश्चिमी ढलान पर स्थित दूसरे भाग के स्मारकों तक पहुँचने के लिए भी सुगम मार्ग है। स्तूप क्रमांक १ से नीचे उतरते हुए हम इन स्मारकों तक पहुँच सकते हैं।
साँची का मुख्य स्तूप अथवा स्तूप क्रमांक १
साँची का स्तूप क्रमांक १ अथवा मुख्य स्तूप एक विशाल अर्ध गोलाकार गुम्बद है। इस स्तूप की विशेषता इसका विशाल आकार है। अपने आकार के कारण यह अन्य स्तूपों में विशेष जान पड़ता है। इसके दक्षिणी भाग पर सोपान हैं जिसके द्वारा आप परिक्रमा पथ तक चढ़ सकते हैं तथा परिक्रमा कर सकते हैं। इसकी चार दिशाओं में चार तोरण युक्त द्वार हैं जो परिक्रमा पथ से साथ मिलकर स्तूप के चारों ओर एक वृत्ताकार सीमा की रचना करते हैं।
स्तूप के शीर्ष पर मुकुट सदृश एक छत्रावली है। छत्रावली के ऊपर एक के ऊपर एक तीन छत्र हैं। ये तीन छत्र बौद्ध धर्म के तीन सिद्धांतों को दर्शाते हैं –
बुद्धं शरणं गच्छामि,
धम्मम शरणं गच्छामि,
संघम शरणं गच्छामि।
इस मुख्य स्तूप अथवा स्तूप क्रमांक १ का व्यास ३६.६ मीटर है तथा उसकी ऊँचाई १६.४६ मीटर है। इसमें छत्रावली की ऊँचाई सम्मिलित नहीं है।
स्तूप के चारों ओर स्थित परिक्रमा पथ का कटघरा शिलाखंडों द्वारा निर्मित है जिन्हें देश के विभिन्न भागों से अनेक श्रद्धालुओं ने दान में प्रदान किये हैं। शिलाखंडों पर अंकित दाताओं के नाम प्राचीन काल के विषय में महत्वपूर्ण जानकारी प्रदान करती हैं।
मूल मंदिर टेराकोटा नामक पदार्थ से निर्मित किया गया था। टेराकोटा में निर्मित यह मंदिर वर्तमान मंदिर के भीतर अब भी स्थित है। पुरातन स्तूप के नवीनीकरण के समय उस पर ईंटों एवं चूने की एक परत बिछाई गयी है। अब चूने की परत कहीं कहीं से उखड़ रही है जो इस सम्पूर्ण संरचना को दृष्टिगत रूप से रोचक बना रही है।
शिलाओं का आवरण, छत, कटघरा, हर्मिका अथवा ग्रीष्म भवन, छत्रावली के चारों ओर की बाड़, ये सब पुरातन स्तूप पर कालांतर में नवीनीकरण के समय जोड़े गए हैं।
साँची के मुख्य स्तूप का तोरण
साँची के मुख्य स्तूप की चार दिशाओं में चार तोरण हैं जो इस स्तूप के विशेष तत्व हैं। इसका निर्माण प्रथम शताब्दी में सातवाहन वंश के राजाओं के किया था। दक्षिणी तोरण पर लगे शिलालेख द्वारा इसकी पुष्टि की जा सकती है।
स्तूप के प्रत्येक तोरण में तीन क्षैतिज फलक हैं जो दो स्तंभों पर जुड़े हुए हैं। इन तीनों फलकों को आपस में भी छोटे लम्बवत शिलाखंडों द्वारा जोड़ा गया है। सभी तोरणों एवं उनके स्तंभों पर चारों दिशाओं में सघन उत्कीर्णन किया गया है। तोरण का ऊपरी भाग ऐसा दर्शाया गया है मानो उसे हाथी, सिंह अथवा गन्धर्व अपने ऊपर ढो रहे हों। पश्चिमी तोरण पर निर्मित गन्धर्व की प्रतिमाओं के मुख पर अभिव्यक्त हाव-भाव दर्शनीय हैं। भार उठाते हुए उनके मुखड़े पर अभिव्यक्त भावनाओं को शिल्पकार ने पूर्ण सत्यता से प्रदर्शित किया है। तीनों क्षैतिज फलकों के दोनों छोरों पर कुण्डलियाँ अंकित हैं।
तीनों फलकों को आपस में जोड़ते तीन तीन लम्बवत शैलखंड रिक्त स्थान को ८ भागों में विभाजित करते हैं। इन खण्डों में अश्व तथा गज पर आरूढ़ सवारों की प्रतिमाएं हैं। जहाँ आड़ी पट्टिकाएं स्तंभों से जुड़ती हैं, उसके बाह्य भागों के ऊपर शालभंजिकाओं की प्रतिमाएं हैं। शालभंजिका स्त्री के उस रूप का चित्रण है जो साल वृक्ष के नीचे उसकी एक शाखा पकड़ कर भिन्न भिन्न मुद्राओं में खड़ी है। तोरण के शीर्ष पर धर्म चक्र है जिसके दोनों ओर चामरधारी एवं बुद्ध, धम्म एवं संघ, ये त्रिरत्न हैं।
तोरण की रचना करने वाले कारीगर हस्तदन्त कारीगर थे। उनके हाथों की कला इन उत्कीर्णनों की सूक्ष्मता एवं जटिलता में स्पष्ट विदित होती है।
तोरणों के शिल्प एवं उत्कीर्णन
सम्पूर्ण तोरण पर विविध प्रकार की मूर्तियाँ एवं उत्कीर्णन हैं। उनमें हैं-
- बौद्ध चिन्ह जैसे, कमल, चक्र एवं स्तूप
- बुद्ध के जीवन के दृश्य जैसे, माया के स्वप्न के द्वारा बुद्ध का जन्म, बोधि वृक्ष द्वारा प्रदर्शित परम ज्ञान की प्राप्ति का दृश्य, उनका प्रथम धर्मोपदेश जिसे चक्र द्वारा प्रदर्शित किया गया है, स्तूप द्वारा प्रदर्शित उनकी मृत्यु। जी हाँ, बुद्ध को उनके मानवी रूप द्वारा नहीं अपितु उनके चिन्हों द्वारा प्रदर्शित किया जाता है।
- अन्य दृश्यों में कपिलवस्तु से उनका प्रस्थान, सुजाता द्वारा अर्पित नैवेद्य, मार के साथ उनका युद्ध आदि सम्मिलित हैं।
- जातक कथाएं जो हमें बोधिसत्त्व की कथाएं कहती हैं। जैसे –
- दक्षिणी, पश्चिमी व उत्तरी तोरण पर उत्कीर्णित छद्दन्त जातक
- पश्चिमी तोरण के स्तम्भ पर अंकित साम जातक
- पश्चिमी द्वार के स्तम्भ पर उत्कीर्णित महाकपि जातक
- उत्तरी द्वार के दोनों ओर अंकित वेस्सन्तर जातक
- उत्तरी द्वार पर उत्कीर्णित अलम्बस जातक
- बौद्ध धर्म के इतिहास से सम्बंधित घटनाएँ
- एक बौद्ध भिक्षुक के जीवन के दृश्य
- अशोक चक्र एवं सिंह चतुर्भुज
- सज्जा आकृतियाँ एवं रूपांकन
स्तूप के दक्षिणी भाग का तोरण स्तूप का मुख्य तोरण है। सर्वप्रथम इसी तोरण की स्थापना की गयी थी। यहीं से आगे जाकर सोपान हैं जो आपको स्तूप के शीर्ष तक ले जाती हैं। इस तोरण पर अशोक चिन्ह है जिसमें चार सिंह हैं। इस तोरण के निकट अशोक स्तंभ है। इसका केवल निचला भाग ही यथास्थान है। यह तोरण सर्वाधिक भंजित भी है। उत्तरी दिशा में स्थित तोरण का संरक्षण सर्वोत्तम रूप से किया गया है।
साँची स्तूप में बुद्ध की प्रतिमाएं
आप किसी भी तोरण के द्वारा स्तूप के भीतर जा सकते हैं। भीतर प्रवेश करते ही आपको बुद्ध की एक बड़ी प्रतिमा दृष्टिगोचर होगी। एक छत्र के नीचे विराजमान बुद्ध के मुख पर परम शान्ति का भाव है। ये गुप्त वंश के राजकाल में निर्मित प्रतिमाएं हैं। मुख्य स्तूप में इन्हें सन् ४५० में जोड़ा गया था।
प्रत्येक छवि में स्तूप की भित्ति का टेका लगाकर बुद्ध ध्यान मुद्रा में बैठे हैं। प्रत्येक बुद्ध प्रतिमा के पृष्ठभाग पर विस्तृत रूप से उत्कीर्णित प्रभामंडल है।
साँची के बौद्ध धरोहर में किये गए संवर्धन
साँची के मुख्य स्तूप के चारों ओर भिन्न भिन्न कालावधि में अनेक बौद्ध मंदिर बनाए गए अथवा उनमें संवर्धन किये गए। यह इस ओर संकेत करता है कि लगभग ७-८ वीं शताब्दी तक यह धरोहर एक जीवंत बौद्ध स्थल था। इसके पश्चात यह सघन वन में लुप्त हो गया। लोगों ने इसे अनेक प्रकार से भंजित किया। वे जो भी उपयोगी भाग देखते, उसे निकालकर ले जाते थे। अशोक स्तंभ को भंजित कर गन्ने का रस निकालने में उसका प्रयोग करने लगे।
धरोहरी स्मारक का परिवेश
स्तूप की भूमि पर स्थित शिलाखंडों एवं उसके गोलाकार कटघरे की भित्ति पर ब्राह्मी अथवा पाली लिपि में अनेक शिलालेख हैं। उन पर उन व्यक्तियों के नाम उकेरे हैं जिन्होंने उनका दान किया था। छोटे से दान द्वारा शिलाखंडों पर अपना नाम अमर कर लेने की यह प्रथा कितनी प्राचीन है!
साँची में अन्य स्तूप
मुख्य स्तूप के चारों ओर कई लघु स्तूप सदृश संरचनाएं हैं। ये मन्नत के स्तूप हैं जिनकी स्थापना उन व्यक्तियों ने की थी जिनकी मनोकामनाएं स्तूप के दर्शन के पश्चात पूर्णत्व को प्राप्त हुई थीं।
स्तूप क्रमांक ३
मुख्य स्तूप के पश्चात स्तूप क्रमांक ३ ही ऐसा स्तूप है जिसका उत्तम रूप से संवर्धन किया गया है। यह मुख्य स्तूप का लघु प्रतिरूप है। इसकी उंचाई एवं व्यास मुख्य स्तूप से न्यून हैं किन्तु रचना मुख्य स्तूप सदृश ही है। स्तूप के चारों ओर स्थित कटघरा अपेक्षाकृत छोटा है। शिलालेखों के अनुसार इन दोनों कटघरों का प्रायोजक एक ही व्यक्ति है।
स्तूप क्रमांक ३ में एक ही तोरण अथवा द्वार है। ऐसी मान्यता है कि इस स्तूप के भीतर सारिपुत्र एवं मौद्गल्यायन के अस्थि अवशेष समाहित हैं। ये दोनों गौतम बुद्ध के शिष्य थे।
इस स्तूप का दिनांकन २री शताब्दी अनुमानित किया गया है।
मठ
मुख्य स्तूप अथवा स्तूप क्रमांक १ के पश्चिमी ओर नीचे जाते हुए कुछ सोपान है जो आपको एक समतल क्षेत्र की ओर ले जाते हैं। वहाँ एक विशाल जलकुंड एवं कुछ मठों के भग्नावशेष हैं। मठ ५१ चौकोर आकार का है। इसके चारों ओर अनेक कक्ष हैं तथा मध्य में एक प्रांगण है।
४६ एवं ४७ क्रमांक के मठों का अन्वेषण हाल ही में किये गए उत्खनन में किया गया था।
इन मठों के भग्नावशेषों के आसपास मंदिरों समेत कई अनेक संरचनाओं के अवशेष देखे जा सकते हैं।
स्तूप क्रमांक २
यहाँ से कुछ सोपान उतारकर आप स्तूप क्रमांक २ पहुँचते हैं। यह एक सीमा तक स्तूप क्रमांक ३ के ही समान है। यहाँ भी ४ प्रवेश द्वार हैं किन्तु उन पर अलंकारिक तोरण नहीं है। इसका गोलाकार कठघरा उत्तम रूप से संरक्षित है।
मार्ग में आपको एक बड़ा भिक्षा पात्र भी दिखाई देगा।
मुख्य स्तूप के दक्षिणी एवं पूर्वी दिशा में कई लघु स्तूप हैं। उन स्तूपों में बुद्ध के शिष्यों के अवशेष हैं। उनमें से कुछ स्तूपों के आधार चौकोर आकार के भी हैं। उनकी स्थापत्य शैली यह संकेत करती है कि वे सब गुप्त काल से सम्बंधित हैं।
स्तूप क्रमांक ५ में बुद्ध की एक छवि है जिसमें बुद्ध ध्यान मुद्रा में बैठे हैं।
परिसर में स्थित पूर्वकाल के कुछ मंदिर
इस धरोहर संकुल के भीतर कुछ ऐसे भी मंदिर हैं जो प्राचीनतम ज्ञात मंदिर संरचनाएँ हैं। ये संरचनाएं गुप्त एवं मौर्य काल की हैं। इन्हें उत्तर भारतीय मंदिर स्थापत्य शैली की पूर्वतर कोपलें कहा जा सकता है।
मंदिर क्रमांक १८ एक गजपृष्ठाकार मंदिर है। ७वीं सदी में निर्मित यह मंदिर एक ऊँचे जगती एवं १२ स्तंभों पर स्थापित रहा होगा। अजंता एल्लोरा गुफाओं के भीतर आपने जो चैत्य गृह देखे थे, उसकी क्षणिक झांकी आप यहाँ भी देख सकते हैं।
मंदिर क्रमांक १७ में गर्भगृह का आकार चौकोर है। उसकी छत सपाट है तथा समक्ष एक द्वारमंडप है। द्वारमंडप के स्तंभों पर सिंह चतुर्भुज अथवा Lion Capital हैं। द्वार के चौखटों पर पुष्पाकृतियाँ उत्कीर्णित हैं। मैंने इस प्रकार के उत्कीर्णन इसी कालावधि में निर्मित महाराष्ट्र के नागपुर में स्थित रामटेक मंदिर में भी देखा था। इसमें गुप्त काल की स्थापत्य शैली का आभास होता है।
मंदिर क्रमांक ६ मंदिर क्रमांक १७ के ही समान है।
३१ क्रमांक का मंदिर आयताकार है। स्तंभों से सज्ज इस मंदिर की छत सपाट है। इसके भीतर जो बुद्ध की प्रतिमा है, वह इस मंदिर की प्रतीत नहीं होती है।
मंदिर क्रमांक ४० में ३री सदी से ८वीं सदी के मध्यकाल में पल्लवित तीन विविध राजवंशों की स्थापत्य शैली दृष्टिगोचर होती है।
यात्रा सुझाव
यह यूनेस्को द्वारा घोषित एक विश्व धरोहर स्थल है। अतः स्वाभिक रूप से इसका उत्तम रखरखाव किया गया है। चारों ओर उत्तम रूप से अनुरक्षित घास के अप्रतिम मैदान हैं। सभी स्तूपों एवं मंदिरों पर सुनियोजित रूप से संख्यांकन किया गया है।
स्तूपों एवं मंदिरों की जानकारी प्रदान करने के लिए परिदर्शकों अथवा गाइड की सुविधाएँ उपलब्ध हैं। हमारा सौभाग्य था कि हमें ऐसा परिदर्शक प्राप्त हुआ जो पुरातत्व विज्ञान का छात्र था। उसने हमें इस स्थल की अनेक सूक्ष्मताओं के विषय में विस्तार से बताया। साँची के इस विश्व धरोहर स्थल के विषय में विस्तृत रूप से जानने के लिए भारतीय पुरातत्व सर्वेक्षण विभाग द्वारा संचालित विश्व धरोहर श्रंखला सर्वोत्तम साधन है।
मध्य प्रदेश पर्यटन विभाग का गेटवे रिट्रीट नामक विश्राम गृह इस धरोहर स्थल के निकट स्थित है। आप इस होटल से धरोहर स्थल तक पदभ्रमण द्वारा आसानी से पहुँच सकते हैं। प्रातःकालीन पदभ्रमण के लिए भी आप होटल से स्तूपों तक जा सकते हैं।
सभी स्तूप खुले आकाश में स्थित है। भारत के मैदानी क्षेत्रों की कड़कती धूप से आप भलीभांति अवगत होंगे। अतः प्रातःकाल उनका अवलोकन करना सर्वोत्तम है। उसी प्रकार सूर्यास्त का समय भी स्तूपों के अवलोकन के लिए उत्तम है। इससे आप दिवस भर की चिलचिलाती धूप से बच सकते हैं।
आप चाहें तो इन स्तूपों को सूर्य की किरणों के नीचे भी देख सकते हैं। सूर्य की किरणों में यह स्तूप चन्दन के काष्ठ से निर्मित प्रतीत होता है।
स्तूपों के तथा उनके साथ अपने छायाचित्र लेने के लिए भी सूर्योदय एवं सूर्यास्त काल सर्वोत्तम होता है। इस कालावधि में चारों ओर छायी निस्तब्धता चित्तभेदक प्रतीत होती है। प्रातःकाल के समय सौभाग्य से आपको बड़ी संख्या में मोर के दर्शन भी प्राप्त हो सकते हैं।
पहाड़ी पर खड़े होकर आपको नीचे से जाती रेलगाड़ी की ध्वनि सुनाई देगी एवं वह दिखाई भी देगी। यदि आप रेलगाड़ी द्वारा दिल्ली से भोपाल की ओर जा रहे हैं तो आपको अपनी बायीं ओर ये स्तूप दृष्टिगोचर होंगे। विदिशा रेल स्थानक पार करते ही आप अपनी बायीं ओर की खिड़की से बाहर की ओर देखते रहें।
साँची स्तूप का भ्रमण व अवलोकन करने के लिए यदि आप वायु मार्ग द्वारा पहुँचना चाहते हैं अथवा रेल यात्रा करना चाहते हैं तो निकटतम विमानतल तथा रेल स्थानक, दोनों भोपाल में है। भोपाल देश के अन्य स्थानों से रेल मार्ग तथा सड़क मार्ग द्वारा सुगम रूप से सम्बद्ध है।