पुत्रदा एकादशी व्रत

पुत्रदा एकादशी का व्रत वर्ष में दो बार, पौष व श्रावण, में आता हैं। पौष माह की शुक्ल पक्ष की एकादशी को पौष पुत्रदा एकादशी के नाम से एवं श्रावण माह की शुक्ल पक्ष एकादशी को श्रावण पुत्रदा एकादशी के नाम से जाना जाता हैं। पद्म पुराण के अनुसार सांसारिक सुखों की प्राप्ति और पुत्र इच्छुक भक्तों के लिए पुत्रदा एकादशी व्रत को फलदायक माना जाता है। संतानहीन या पुत्र हीन जातको के लिए इस व्रत को बेहद अहम माना जाता है।

पौष पुत्रदा एकादशी व्रत विधि -
पुत्रदा एकादशी व्रत रखने वाले व्यक्ति को दशमी के दिन लहसुन, प्याज आदि नहीं खाना चाहिए। साथ ही दशमी के दिन किसी प्रकार का भोग-विलास नहीं करना चाहिए। पुत्रदा एकादशी के दिन सुबह स्नानादि से शुद्ध होकर उपवास करना चाहिए। भगवान विष्णु और विशेषकर विष्णु जी के बाल गोपाल रूप की पूजा करनी चाहिए। द्वादशी को भगवान विष्णु की अर्घ्य देकर पूजा संपन्न करनी चाहिए। द्वादशी के दिन ब्राह्मण को भोजन करवाने के बाद उनसे आशीर्वाद प्राप्त करके स्वयं भोजन करना चाहिए।

 

पौष पुत्रदा एकादशी व्रत कथा -
प्राचीन समय में भद्रावती नगरी में सुकेतुमान नाम का एक राजा राज्य करता था। उसके कोई संतान नहीं थी। उसकी पत्नी का नाम शैव्या था। उस पुत्रहीन राजा के मन में इस बात की बड़ी चिंता थी कि उसके बाद उसे और उसके पूर्वजों को कौन पिंडदान देगा। उसके पितर भी व्यथित हो पिंड लेते थे कि सुकेतुमान के बाद हमें कौन पिंड देगा। इधर राजा भी बंधु-बांधव, राज्य, हाथी, घोड़ा आदि से संतुष्ट नहीं था। उसका एकमात्र कारण पुत्रहीन होना था। बिना पुत्र के पितरों और देवताओं से उऋण नहीं हो सकते। इस तरह राजा रात-दिन इसी चिंता में घुला करता था। इस चिंता के कारण एक दिन वह इतना दुखी हो गया कि उसके मन में अपने शरीर को त्याग देने की इच्छा उत्पन्न हो गई, किंतु वह सोचने लगा कि आत्महत्या करना तो महापाप है, अतः उसने इस विचार को मन से निकाल दिया। एक दिन इन्हीं विचारों में डूबा हुआ वह घोड़े पर सवार होकर वन को चल दिया।

 

घोड़े पर सवार राजा वन, पक्षियों और वृक्षों को देखने लगा। उसने वन में देखा कि मृग, बाघ, सिंह, बंदर आदि विचरण कर रहे हैं। हाथी शिशुओं और हथिनियों के बीच में विचर रहा है। उस वन में राजा ने देखा कि कहीं तो सियार कर्कश शब्द निकाल रहे हैं और कहीं मोर अपने परिवार के साथ नाच रहे हैं। वन के दृश्यों को देखकर राजा और ज्यादा दुखी हो गया कि उसके पुत्र क्यों नहीं हैं? इसी सोच-विचार में दोपहर हो गई। वह सोचने लगा कि मैंने अनेक यज्ञ किए हैं और ब्राह्मणों को स्वादिष्ट भोजन कराया है, किंतु फिर भी मुझे यह दुख क्यों मिल रहा है? आखिर इसका कारण क्या है? अपनी व्यथा किससे कहूं? कौन मेरी व्यथा का समाधान कर सकता है?
 

अपने विचारों में खोए राजा को प्यास लगी। वह पानी की तलाश में आगे बढ़ा। कुछ दूर जाने पर उसे एक सरोवर मिला। उस सरोवर में कमल पुष्प खिले हुए थे। सारस, हंस, घड़ियाल आदि जल-क्रीड़ा में मग्न थे। सरोवर के चारों तरफ ऋषियों के आश्रम बने हुए थे। अचानक राजा के दाहिने अंग फड़कने लगे। इसे शुभ शगुन समझकर राजा मन में प्रसन्न होता हुआ घोड़े से नीचे उतरा और सरोवर के किनारे बैठे हुए ऋषियों को प्रणाम करके उनके सामने बैठ गया।
 

ऋषिवर बोले- ‘हे राजन! हम तुमसे अति प्रसन्न हैं। तुम्हारी जो इच्छा है, हमसे कहो।’
 

राजा ने प्रश्न किया- ‘हे विप्रो! आप कौन हैं? और किसलिए यहां रह रहे हैं?’
 

ऋषि बोले- ‘राजन! आज पुत्र की इच्छा करने वाले को श्रेष्ठ पुत्र प्रदान करने वाली पुत्रदा एकादशी है। आज से पांच दिन बाद माघ स्नान है और हम सब इस सरोवर में स्नान करने आए हैं।’
 

ऋषियों की बात सुन राजा ने कहा- ‘हे मुनियो! मेरा भी कोई पुत्र नहीं है, यदि आप मुझ पर प्रसन्न हैं तो कृपा कर मुझे एक पुत्र का वरदान वीजिए।’
 

ऋषि बोले- ‘हे राजन! आज पुत्रदा एकादशी है। आप इसका उपवास करें। भगवान श्रीहरि की अनुकम्पा से आपके घर अवश्य ही पुत्र होगा।’
 

राजा ने मुनि के वचनों के अनुसार उस दिन उपवास किया और द्वादशी को व्रत का पारण किया और ऋषियों को प्रणाम करके वापस अपनी नगरी आ गया। भगवान श्रीहरि की कृपा से कुछ दिनों बाद ही रानी ने गर्भ धारण किया और नौ माह के पश्चात उसके एक तेजस्वी पुत्र उत्पन्न हुआ। यह राजकुमार बड़ा होने पर अत्यंत वीर, धनवान, यशस्वी और प्रजापालक बना।”

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