भीष्माष्टमी
प्रतिवर्ष माघ मास की शुक्ल पक्ष की सप्तमी को अचला सप्तमी का पर्व मनाया जाता है। इसे सूर्य सप्तमी, रथ आरोग्य सप्तमी, सूर्यरथ सप्तमी आदि नामों से भी जाना जाता है। अगर यह सप्तमी रविवार के दिन आती हो तो इसे अचला भानू सप्तमी भी कहा जाता है।
शास्त्रों के अनुसार इसी दिन महाभारत के प्रमुख पात्र भीष्म पितामह ने अपनी इच्छा से शरीर त्याग किया था।
ऐसी मान्यता है कि गंगा-पुत्र भीष्म के निमित्त जो भी भीमाष्टमी का व्रत, पूजा और तर्पण करता है, उसे वीर और सत्ववादी पुत्र की प्राप्ति होती है। भीष्म के बचपन का नाम देवव्रत था। वह हस्तिनापुर के महाराज शांतनु और देवी गंगा की संतान थे। देवव्रत की माता देवी गंगा अपने पति शांतनु को दिए वचन के अनुसार अपने पुत्र को अपने साथ ले गई थी। देवव्रत की प्रारम्भिक शिक्षा और लालन-पालन माता गंगा के पास ही पूरा हुआ। जब देवव्रत ने शिक्षा पूरी कर लीं तो उन्हें गंगा ने उनके पिता महाराज शांतनु को सौंप दिया। कई वर्षों के बाद पिता-पुत्र का मिलन हुआ और महाराज शांतनु ने अपने पुत्र देवव्रत को युवराज घोषित कर दिया।
ऐसे मिला था इच्छा मृत्यु का वरदान
हस्तिनापुर नरेश महाराज शांतनु को शिकार को बहुत शौक था। एक दिन वह शिकार खेलते-खेलते गंगा तट के पार चले गए। वहां से लौटते वक्त उनकी मुलाकात हरिदास केवट की पुत्री 'मत्स्यगंधा' (सत्यवती) से हुई। मत्स्यगंधा बहुत सुन्दर थी। शांतनु उस पर मोहित हो जाते हैं और उसके पिता हरिदास केवट के समक्ष विवाह का प्रस्ताव रखते है। वह राजा के प्रस्ताव एक शर्त पर स्वीकार करने की बात कहते है। उन्होंने शांतनु के जेष्ठ पुत्र देवव्रत की जगह मत्स्यगंधा से होने वाली संतान को हस्तिनापुर का उत्तराधिकारी बनाने की शर्त रख दी।
राजा शांतनु हरिदास केवट के प्रस्ताव को अस्वीकार कर देते हैं। लेकिन, मत्स्यगंधा को भूल नहीं पाते हैं। दिन-रात उसकी याद में व्याकुल रहने लगे। यह सब देखकर एक दिन देवव्रत ने अपने पिता से उनकी व्याकुलता का कारण पूछा तो उन्होंने सारी बताई। इसके बाद देवव्रत स्वयं केवट हरिदास के पास गए। उन्होंने वहां गंगाजल हाथ में लेकर आजीवन अविवाहित रहने की प्रतीज्ञा की। देवव्रत की इसी कठिन प्रतिज्ञा के कारण उनका नाम भीष्म पड़ा।
बाद में राजा शांतनु ने प्रसन्न होकर अपने पुत्र को इच्छित मृत्यु का वरदान दिया। महाभारत के युद्ध की समाप्ति पर जब सूर्य देव दक्षिणायन से उत्तरायण हुए, तब भीष्म पितामह ने अपना शरीर त्याग दिया। इसलिए माघ शुक्ल पक्ष की अष्टमी को उनका निर्वाण दिवस मनाया जाता है।