पृथ्वी देवों से नहीं दानवों से हुई है उत्पन्न
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हिंदू पौराणिक कथा के अनुसार भगवान नारायण ने देवर्षि नारद जी को बताया कि यह पृथ्वी मधु और कैटभ के मेद से उत्पन्न हुई हैं। हिंदू पौराणिक कथा के अनुसार भगवान विष्णु ने देवर्षि नारद जी को बताया कि यह पृथ्वी मधु और कैटभ के मेद से उत्पन्न हुई हैं। यानी जब वह दैत्य पृथ्वी पर थे उस समय पृथ्वी स्पष्ट दिखाई नहीं देती थी।
जब मां दुर्गा ने उनका संहार किया, तब उनके शरीर से 'मेद' निकला वही सूर्य के तेज से सूख गया। इसके कारण पृथ्वी को उस समय 'मेदिनी' कहा जाने लगा। और बाद में 'मेदिनी' नाम से बदलकर पृथ्वी हो गया। ब्रह्म वैवर्त पुराण के प्रकृति खंड में पृथ्वी माता के प्रकट होने से लेकर पुत्र मंगल को उत्पन्न करने तक की पूरी कहानी दी गई है। पृथ्वी के जन्म की एक अन्य कथा के अनुसार, महाविराट पुरुष अनंतकाल से जल में रहते थे। समय बदला और महाविराट पुरुष के सभी रोमकूप उनके आश्रय बन जाते थे। उन्हीं रोमकूपों से पृथ्वी निकल आती है। जितने रोमकूप हैं, उन सबमें एक-एक से जल सहित पृथ्वी बार-बार प्रकट होती और छिपती रहती है। सृष्टि के समय जल के ऊपर स्थिर रहना और प्रलय काल उपस्थित होने पर छिपकर जल के भीतर चले जाना यही इसका नियम था। वन और पर्वत इसकी शोभा बढ़ाते हैं। यह सात समुद्रों से घिरी रहती है। सात द्वीप इसके अंग हैं। हिमालय और सुमेरु आदि पर्वत तथा सूर्य एवं चंद्रमा प्रभृति ग्रह इसे सदा सुशोभित करते हैं।
महाविराट की आज्ञा के अनुसार ब्रह्मा, विष्णु तथा शिव आदि देवता प्रकट होते एवं समस्त प्राणी इस पर रहते हैं। पुण्य तीर्थ तथा पवित्र भारतवर्ष जैसे देशों से संपन्न होने का इसे अवसर मिलता है। यह पृथ्वी स्वर्णमय भूमि है। इस पर सात स्वर्ग हैं। इसके नीचे सात पाताल हैं। ऊपर ब्रह्मलोक है। ब्रह्मलोक से भी ऊपर ध्रुवलोक है। पृथ्वीदान के पुण्य के बारे में शास्त्र कहता है कि जो पुरुष किसी ब्राह्मण को एक भूमि दान करता है, वह भगवान् शिव के मंदिर-निर्माण के पुण्य का भागी बन जाता है।
भूकंप एवं ग्रहण के अवसर पर पृथ्वी को खोदने से बड़ा पाप लगता है। इस मर्यादा का उल्लंघन करने से दूसरे जन्म में अंगहीन होना पड़ता है। इस पर सबके भवन बने हैं, इसलिये यह 'भूमि' कहलाती है। महर्षि कश्यप की पुत्री होने से 'कश्यपी' तथा स्थिररूप होने 'स्थिरा' कही जाती है। अनन्त रूप होने से 'अनन्ता' तथा पृथुकी कन्या होने से अथवा सर्वत्र फैली रहने से इसका नाम 'पृथ्वी' पड़ा है। अथर्ववेद में एक सूक्त मिलता है। इसमें पृथ्वी की उत्पत्ति के मंत्र तो बहुत थोड़े हैं लेकिन इनमें प्रकार के रहस्यवाद की बातें नहीं हैं। इसमें दर्शन तो बहुत कम है। यह महत्वपूर्ण सूक्त (12.1) पृथ्वी सूक्त के नाम से प्रसिद्ध है। इसमें 63 मंत्र हैं। जिसमें पृथ्वी माता की स्तुति की गई है।
पृथ्वी माता की स्तुति
पुराणों के अनुसार धरती माता पर पैर रखना भी त्रुटि (दोष) का कारण माना जाता है लेकिन मनुष्य जीवन भूमि स्पर्श से अछूता नहीं रह सकता। भूमि का पैरों से स्पर्श करने के लिए जो त्रुटि होती है उससे बचने के लिए विशेष मंत्र द्वारा क्षमा प्रार्थना अवश्यक मानी गई है।