जब गणेश ने दिया तुलसी को वृक्ष होने का श्राप
एक समय की बात है। नवयौवन सम्पन्ना तुलसी देवी नारायण परायण हो तपस्या के निमित्त तीर्थों में भ्रमण करती हुई गंगा तट पर जा पहुँचीं। वहाँ उन्होंने गणेश को देखा, जिनकी नयी जवानी थी; जो अत्यंत सुंदर, शुद्ध और पीताम्बर धारण किए हुए थे; सुन्दरता जिनके मन का अपहरण नहीं कर सकती; जो कामनारहित, जितेन्द्रियों में सर्व श्रेष्ठ और योगीन्द्रों के गुरु के गुरु हैं तथा मन्द मन्द मुस्कराते हुए जन्म, मृत्यु और बुढ़ापा का नाश करने वाले श्री कृष्ण के चरण कमलों का ध्यान कर रहे थे ।उन्हें देखते ही तुलसी का मन गणेश की ओर आकर्षित हो गया ।
तब तुलसी उनसे लम्बोदर तथा गजमुख होने का कारण पूछकर उनका उपहास करने लगी।ध्यान भंग होने पर गणेश जी ने पूछा — वत्से! तुम कौन हो? किसकी कन्या हो? यहाँ तुम्हारे आने का क्या कारण है? माता! यह मुझे बुलाओ; क्योंकि शुभे ! तपस्वियों का ध्यान भंग करना सदा पापजनक तथा अमंगलकारी होता है । शुभे! श्री कृष्ण कल्याण करें, कृपानिधि विघ्न का विनाश करें और मेरे ध्यान भंग से उत्पन्न हुआ दोष तुम्हारे लिए अमंगलकारक न हो। इस पर तुलसी ने कहा — प्रभो! मैं धर्मात्मज की नवयुवती कन्या हूँ और तपस्या में संलग्न हूँ । मेरी यह तपस्या पति प्राप्ति के लिए है; अतः आप मेरे स्वामी हो जाइये।तुलसी की बात सुनकर अगाध बुद्धि सम्पन्न गणेश श्री हरि का स्मरण करते हुए विदुषी तुलसी से मधुरवाणी में बोले। गणेश ने कहा — हे माता ! विवाह करना बड़ा भयंकर होता है; अतः इस विषय में मेरी बिल्कुल इच्छा नहीं है; क्योंकि विवाह दुख का कारण होता है, उससे सुख कभी नहीं मिलता । यह हरि भक्ति का व्यवधान, तपस्या के नाश का कारण, मोक्षद्वार का किबाड़, भव बन्धन की रस्सी, गर्भवास कारक, सदा तत्वज्ञान का छेदक और संशयों का उद्गम स्थान है। इसलिए महाभागे ! मेरी ओर से मन लौटा लो और किसी अन्य पति की तलाश करो। गणेश के ऐसे बचन सुनकर तुलसी को क्रोध आ गया । तब वह साध्वी गणेश को शाप देती हुई बोली —‘ तुम्हारा विवाह होगा’। यह सुनकर गणेश ने भी तुलसी को शाप दिया — तुम निस्संदेह असुर द्वारा ग्रस्त होओगी। तत्पश्चात् महापुरुषों के शाप से तुम वृक्ष हो जाओगी। गणेश इतना कहकर चुप हो गये । उस शाप को सुनकर तुलसी ने फिर सुरश्रेष्ठ गणेश की स्तुति की। तब प्रसन्न होकर गणेश ने तुलसी से कहा। गणेश बोले — मनोरमे ! तुम पुष्पों की सारभूता होओगी और कलांश से स्वयं नारायण की प्रिया बनोगी। महाभागे ! यों तो सभी देवता तुम से प्रेम करेंगे, परंतु श्री कृष्ण के लिए तुम विशेष प्रिय होओगी। तुम्हारे द्वारा की गयी पूजा मनुष्यों के लिए मुक्तिदायिनी होगी और मेरे लिए सर्वदा तुम त्याज्य रहोगी। तुलसी से यों कहकर गणेशजी पुनः तप करने चले गये । वे श्री हरि की आराधना में व्यग्र होकर बदरीनाथ के संनिकट गये। इधर तुलसी देवी दुःखित हृदय से पुष्कर में जा पहुँची और निराधार रहकर वहाँ दीर्घकालिक तपस्या में संलग्न हो गयीं। तत्पश्चात् गणेश के शाप से वह चिरकाल तक शंखचूड़ की प्रिय पत्नी बनी रही। तदनन्तर असुरराज शंखचूड़ शंकर जी के त्रिशूल से मृत्यु को प्राप्त हो गया। तब नारायण प्रिया तुलसी कलांश से वृक्ष भाव को प्राप्त हो गयी। |