जया एकादशी
माघ माह के शुक्ल पक्ष की एकादशी को जया एकादशी कहते हैं। इस एकादशी के उपवास से मनुष्य भूत, प्रेत, पिशाच आदि की योनि से छूट जाता है, अतः इस एकादशी के उपवास को विधि अनुसार करना चाहिए।
जया एकादशी व्रत कथा
एक बार देवताओं के राजा इंद्र नंदन वन में भ्रमण कर रहे थे। चारों तरफ किसी उत्सव का-सा माहौल था। गांधर्व गा रहे थे और गंधर्व कन्याएं नृत्य कर रही थीं। वहीं पुष्पवती नामक गंधर्व कन्या ने माल्यवान नामक गंधर्व को देखा और उस पर आसक्त होकर अपने हाव-भाव से उसे रिझाने का प्रयास करने लगी। माल्यवान भी उस गंधर्व कन्या पर आसक्त होकर अपने गायन का सुर-ताल भूल गया। इससे संगीत की लय टूट गई और संगीत का सारा आनंद बिगड़ गया। सभा में उपस्थित देवगणों को यह बहुत बुरा लगा। यह देखकर देवेंद्र भी रूष्ट हो गए। संगीत एक पवित्र साधना है। इस साधना को भ्रष्ट करना पाप है, अतः क्रोधवश इंद्र ने पुष्पवती तथा माल्यवान को शाप दे दिया- ‘संगीत की साधना को अपवित्र करने वाले माल्यवान और पुष्पवती! तुमने देवी सरस्वती का घोर अपमान किया है, अतः तुम्हें मृत्युलोक में जाना होगा। गुरुजनों की सभा में असंयम और लज्जाजनक प्रदर्शन करके तुमने गुरुजनों का भी अपमान किया है, इसलिए इंद्रलोक में तुम्हारा रहना अब वर्जित है, अब तुम अधम पिशाच असंयमी का-सा जीवन बिताओगे।’
देवेंद्र का शाप सुनकर वे अत्यंत दुखी हुए और हिमालय पर्वत पर पिशाच योनि में दुःखपूर्वक जीवनयापन करने लगे। उन्हें गंध, रस, स्पर्श आदि का तनिक भी बोध नहीं था। वहीं उन्हें असहनीय दुःख सहने पड़ रहे थे। रात-दिन में उन्हें एक क्षण के लिए भी नींद नहीं आती थी। उस स्थान का वातावरण अत्यंत शीतल था, जिसके कारण उनके रोएं खड़े हो जाते थे, हाथ-पैर सुन्न पड़ जाते थे, दांत बजने लगते थे।
एक दिन उस पिशाच ने अपनी स्त्री से कहा- ‘न मालूम हमने पिछले जन्म में कौन-से पाप किए हैं, जिसके कारण हमें इतनी दुःखदायी यह पिशाच योनि प्राप्त हुई है? पिशाच योनि से नरक के दुःख सहना कहीं ज्यादा उत्तम है।’ इसी प्रकार के अनेक विचारों को कहते हुए अपने दिन व्यतीत करने लगे।
भगवान की कृपा से एक बार माघ के शुक्ल पक्ष की जया एकादशी के दिन इन दोनों ने कुछ भी भोजन नहीं किया और न ही कोई पाप कर्म किया। उस दिन मात्र फल-फूल खाकर ही दिन व्यतीत किया और महान दुःख के साथ पीपल के वृक्ष के नीचे विश्राम करने लगे। उस दिन सूर्य भगवान अस्ताचल को जा रहे थे। वह रात इन दोनों ने एक-दूसरे से सटकर बड़ी कठिनता से काटी।
दूसरे दिन प्रातः काल होते ही प्रभु की कृपा से इनकी पिशाच योनि से मुक्ति हो गई और पुनः अपनी अत्यंत सुंदर अप्सरा और गंधर्व की देह धारण करके तथा सुंदर वस्त्रों तथा आभूषणों से अलंकृत होकर दोनों स्वर्ग लोक को चले गए। उस समय आकाश में देवगण तथा गंधर्व इनकी स्तुति करने लगे। इंद्रलोक में जाकर इन दोनों ने देवेंद्र को दण्डवत् किया।
देवेंद्र को भी उन्हें उनके रूप में देखकर महान विस्मय हुआ और उन्होंने पूछा- ‘तुम्हें पिशाच योनि से किस प्रकार मुक्ति मिली, उसका पूरा वृत्तांत मुझे बताओ।’
देवेंद्र की बात सुन माल्यवान ने कहा- ‘हे देवताओं के राजा इंद्र! श्रीहरि की कृपा तथा जया एकादशी के व्रत के पुण्य से हमें पिशाच योनि से मुक्ति मिली है।’
इंद्र ने कहा- ‘हे माल्यवान! एकादशी व्रत करने से तथा भगवान श्रीहरि की कृपा से तुम लोग पिशाच योनि को छोड़कर पवित्र हो गए हो, इसलिए हम लोगों के लिए भी वंदनीय हो गए हो, क्योंकि शिव तथा विष्णु-भक्त हम देवताओं के वंदना करने योग्य हैं, अतः आप दोनों धन्य हैं। अब आप प्रसन्नतापूर्वक देवलोक में निवास कर सकते हैं।’
जया एकादशी व्रत विधि
जया एकादशी व्रत के दिन भगवान विष्णु के अवतार ‘श्रीकृष्ण जी’ की पूजा का विधान है। जो व्यक्ति जया एकादशी व्रत का संकल्प लेना चाहता है, उसे व्रत के एक दिन पहले यानि दशमी के दिन एक बार ही भोजन करना चाहिए।
इसके बाद एकादशी के दिन व्रत संकल्प लेकर धूप, फल, दीप, पंचामृत आदि से भगवान की पूजा करनी चाहिए। जया एकादशी की रात को सोना नहीं चाहिए, बल्कि भगवान का भजन- कीर्तन व सहस्त्रनाम का पाठ करना चाहिए।
द्वादशी अथवा पारण के दिन स्नानादि के बाद पुनः भगवान का पूजन करने का विधान है। पूजन के बाद भगवान को भोग लगाकर प्रसाद वितरण करना चाहिए। इसके बाद ब्राह्मण को भोजन करा कर क्षमता अनुसार दान देना चाहिए। अंत में भोजन ग्रहण कर उपवास खोलना चाहिए।
जया एकादशी व्रत का महत्त्व
जया एकादशी के दिन व्रत करने से समस्त वेदों का ज्ञान, यज्ञों तथा अनुष्ठानों का पुण्य मिलता है। जया एकादशी व्रत के प्रभाव से मनुष्य के सभी पापों का नाश होता है। यह व्रत व्यक्ति को भोग तथा मोक्ष प्रदान करता है। इस पुण्य व्रत को करने से मनुष्य को कभी भी प्रेत योनि में नहीं जाना पड़ता।