भगति प्रताप तेज बल सानी॥ आसिष दीन्हि राम प्रिय जाना। होहु तात बल सील निधाना॥1॥ भावार्थः-भक्ति, प्रताप, तेज और बल से सनी हुई हनुमान्जी की वाणी सुनकर सीताजी के मन में संतोष हुआ। उन्होंने श्री रामजी के प्रिय जानकर हनुमान्जी को आशीर्वाद दिया कि हे तात! तुम बल और शील के निधान होओ॥1॥ अजर अमर गुननिधि सुत होहू। करहुँ बहुत रघुनायक छोहू॥ करहुँ कृपा प्रभु अस सुनि काना। निर्भर प्रेम मगन हनुमाना॥2॥ भावार्थः-हे पुत्र! तुम अजर (बुढ़ापे से रहित), अमर और गुणों के खजाने होओ। श्री रघुनाथजी तुम पर बहुत कृपा करें। ‘प्रभु कृपा करें’ ऐसा कानों से सुनते ही हनुमान्जी पूर्ण प्रेम में मग्न हो गए॥2॥ बार बार नाएसि पद सीसा। बोला बचन जोरि कर कीसा॥ अब कृतकृत्य भयउँ मैं माता। आसिष तव अमोघ बिख्याता॥3॥ भावार्थः-हनुमान्जी ने बार-बार सीताजी के चरणों में सिर नवाया और फिर हाथ जोड़कर कहा- हे माता! अब मैं कृतार्थ हो गया। आपका आशीर्वाद अमोघ (अचूक) है, यह बात प्रसिद्ध है॥3॥ सुनहु मातु मोहि अतिसय भूखा। लागि देखि सुंदर फल रूखा॥ सुनु सुत करहिं बिपिन रखवारी। परम सुभट रजनीचर भारी॥4॥ भावार्थः-हे माता! सुनो, सुंदर फल वाले वृक्षों को देखकर मुझे बड़ी ही भूख लग आई है। (सीताजी ने कहा-) हे बेटा! सुनो, बड़े भारी योद्धा राक्षस इस वन की रखवाली करते हैं॥4॥ तिन्ह कर भय माता मोहि नाहीं। जौं तुम्ह सुख मानहु मन माहीं॥5॥ भावार्थः-(हनुमान्जी ने कहा-) हे माता! यदि आप मन में सुख मानें (प्रसन्न होकर) आज्ञा दें तो मुझे उनका भय तो बिलकुल नहीं है॥5॥ दोहा : रघुपति चरन हृदयँ धरि तात मधुर फल खाहु॥17॥ भावार्थः-हनुमान्जी को बुद्धि और बल में निपुण देखकर जानकीजी ने कहा- जाओ। हे तात! श्री रघुनाथजी के चरणों को हृदय में धारण करके मीठे फल खाओ॥17॥ फल खाएसि तरु तोरैं लागा॥ रहे तहाँ बहु भट रखवारे। कछु मारेसि कछु जाइ पुकारे॥1॥ भावार्थः-वे सीताजी को सिर नवाकर चले और बाग में घुस गए। फल खाए और वृक्षों को तोड़ने लगे। वहाँ बहुत से योद्धा रखवाले थे। उनमें से कुछ को मार डाला और कुछ ने जाकर रावण से पुकार की-॥1॥ नाथ एक आवा कपि भारी। तेहिं असोक बाटिका उजारी॥ खाएसि फल अरु बिटप उपारे। रच्छक मर्दि मर्दि महि डारे॥2॥ भावार्थः-(और कहा-) हे नाथ! एक बड़ा भारी बंदर आया है। उसने अशोक वाटिका उजाड़ डाली। फल खाए, वृक्षों को उखाड़ डाला और रखवालों को मसल-मसलकर जमीन पर डाल दिया॥2॥ सुनि रावन पठए भट नाना। तिन्हहि देखि गर्जेउ हनुमाना॥ सब रजनीचर कपि संघारे। गए पुकारत कछु अधमारे॥3॥ भावार्थः-यह सुनकर रावण ने बहुत से योद्धा भेजे। उन्हें देखकर हनुमान्जी ने गर्जना की। हनुमान्जी ने सब राक्षसों को मार डाला, कुछ जो अधमरे थे, चिल्लाते हुए गए॥3॥ पुनि पठयउ तेहिं अच्छकुमारा। चला संग लै सुभट अपारा॥ आवत देखि बिटप गहि तर्जा। ताहि निपाति महाधुनि गर्जा॥4॥ भावार्थः-फिर रावण ने अक्षयकुमार को भेजा। वह असंख्य श्रेष्ठ योद्धाओं को साथ लेकर चला। उसे आते देखकर हनुमान्जी ने एक वृक्ष (हाथ में) लेकर ललकारा और उसे मारकर महाध्वनि (बड़े जोर) से गर्जना की॥4॥ कछु पुनि जाइ पुकारे प्रभु मर्कट बल भूरि॥18॥ भावार्थः-उन्होंने सेना में से कुछ को मार डाला और कुछ को मसल डाला और कुछ को पकड़-पकड़कर धूल में मिला दिया। कुछ ने फिर जाकर पुकार की कि हे प्रभु! बंदर बहुत ही बलवान् है॥18॥ पठएसि मेघनाद बलवाना॥ मारसि जनि सुत बाँधेसु ताही। देखिअ कपिहि कहाँ कर आही॥1॥ भावार्थः-पुत्र का वध सुनकर रावण क्रोधित हो उठा और उसने (अपने जेठे पुत्र) बलवान् मेघनाद को भेजा। (उससे कहा कि-) हे पुत्र! मारना नहीं उसे बाँध लाना। उस बंदर को देखा जाए कि कहाँ का है॥1॥ चला इंद्रजित अतुलित जोधा। बंधु निधन सुनि उपजा क्रोधा॥ कपि देखा दारुन भट आवा। कटकटाइ गर्जा अरु धावा॥2॥ भावार्थः-इंद्र को जीतने वाला अतुलनीय योद्धा मेघनाद चला। भाई का मारा जाना सुन उसे क्रोध हो आया। हनुमान्जी ने देखा कि अबकी भयानक योद्धा आया है। तब वे कटकटाकर गर्जे और दौड़े॥3॥ अति बिसाल तरु एक उपारा। बिरथ कीन्ह लंकेस कुमारा॥ रहे महाभट ताके संगा। गहि गहि कपि मर्दई निज अंगा॥3॥ भावार्थः-उन्होंने एक बहुत बड़ा वृक्ष उखाड़ लिया और (उसके प्रहार से) लंकेश्वर रावण के पुत्र मेघनाद को बिना रथ का कर दिया। (रथ को तोड़कर उसे नीचे पटक दिया)। उसके साथ जो बड़े-बड़े योद्धा थे, उनको पकड़-पकड़कर हनुमान्जी अपने शरीर से मसलने लगे॥3॥ तिन्हहि निपाति ताहि सन बाजा। भिरे जुगल मानहुँ गजराजा॥ मुठिका मारि चढ़ा तरु जाई। ताहि एक छन मुरुछा आई॥4॥ भावार्थः-उन सबको मारकर फिर मेघनाद से लड़ने लगे। (लड़ते हुए वे ऐसे मालूम होते थे) मानो दो गजराज (श्रेष्ठ हाथी) भिड़ गए हों। हनुमान्जी उसे एक घूँसा मारकर वृक्ष पर जा चढ़े। उसको क्षणभर के लिए मूर्च्छा आ गई॥4॥ उठि बहोरि कीन्हिसि बहु माया। जीति न जाइ प्रभंजन जाया॥5॥ भावार्थः-फिर उठकर उसने बहुत माया रची, परंतु पवन के पुत्र उससे जीते नहीं जाते॥5॥ जौं न ब्रह्मसर मानउँ महिमा मिटइ अपार॥19॥ भावार्थः-अंत में उसने ब्रह्मास्त्र का संधान (प्रयोग) किया, तब हनुमान्जी ने मन में विचार किया कि यदि ब्रह्मास्त्र को नहीं मानता हूँ तो उसकी अपार महिमा मिट जाएगी॥19॥ परतिहुँ बार कटकु संघारा॥ तेहिं देखा कपि मुरुछित भयऊ। नागपास बाँधेसि लै गयऊ॥1॥ भावार्थः-उसने हनुमान्जी को ब्रह्मबाण मारा, (जिसके लगते ही वे वृक्ष से नीचे गिर पड़े), परंतु गिरते समय भी उन्होंने बहुत सी सेना मार डाली। जब उसने देखा कि हनुमान्जी मूर्छित हो गए हैं, तब वह उनको नागपाश से बाँधकर ले गया॥1॥ जासु नाम जपि सुनहु भवानी। भव बंधन काटहिं नर ग्यानी॥ तासु दूत कि बंध तरु आवा। प्रभु कारज लगि कपिहिं बँधावा॥2॥ भावार्थः-(शिवजी कहते हैं-) हे भवानी सुनो, जिनका नाम जपकर ज्ञानी (विवेकी) मनुष्य संसार (जन्म-मरण) के बंधन को काट डालते हैं, उनका दूत कहीं बंधन में आ सकता है? किंतु प्रभु के कार्य के लिए हनुमान्जी ने स्वयं अपने को बँधा लिया॥2॥ कपि बंधन सुनि निसिचर धाए। कौतुक लागि सभाँ सब आए॥ दसमुख सभा दीखि कपि जाई। कहि न जाइ कछु अति प्रभुताई॥3॥ भावार्थः-बंदर का बाँधा जाना सुनकर राक्षस दौड़े और कौतुक के लिए (तमाशा देखने के लिए) सब सभा में आए। हनुमान्जी ने जाकर रावण की सभा देखी। उसकी अत्यंत प्रभुता (ऐश्वर्य) कुछ कही नहीं जाती॥3॥ कर जोरें सुर दिसिप बिनीता। भृकुटि बिलोकत सकल सभीता॥ देखि प्रताप न कपि मन संका। जिमि अहिगन महुँ गरुड़ असंका॥4॥ भावार्थः-देवता और दिक्पाल हाथ जोड़े बड़ी नम्रता के साथ भयभीत हुए सब रावण की भौं ताक रहे हैं। (उसका रुख देख रहे हैं) उसका ऐसा प्रताप देखकर भी हनुमान्जी के मन में जरा भी डर नहीं हुआ। वे ऐसे निःशंख खड़े रहे, जैसे सर्पों के समूह में गरुड़ निःशंख निर्भय) रहते हैं॥4॥ दोहा : सुत बध सुरति कीन्हि पुनि उपजा हृदयँ बिसाद॥20॥ भावार्थः-हनुमान्जी को देखकर रावण दुर्वचन कहता हुआ खूब हँसा। फिर पुत्र वध का स्मरण किया तो उसके हृदय में विषाद उत्पन्न हो गया॥20॥ केहि कें बल घालेहि बन खीसा॥ की धौं श्रवन सुनेहि नहिं मोही। देखउँ अति असंक सठ तोही॥1॥ भावार्थः-लंकापति रावण ने कहा- रे वानर! तू कौन है? किसके बल पर तूने वन को उजाड़कर नष्ट कर डाला? क्या तूने कभी मुझे (मेरा नाम और यश) कानों से नहीं सुना? रे शठ! मैं तुझे अत्यंत निःशंख देख रहा हूँ॥1॥ मारे निसिचर केहिं अपराधा। कहु सठ तोहि न प्रान कइ बाधा॥ सुनु रावन ब्रह्मांड निकाया। पाइ जासु बल बिरचति माया॥2॥ भावार्थः-तूने किस अपराध से राक्षसों को मारा? रे मूर्ख! बता, क्या तुझे प्राण जाने का भय नहीं है? (हनुमान्जी ने कहा-) हे रावण! सुन, जिनका बल पाकर माया संपूर्ण ब्रह्मांडों के समूहों की रचना करती है,॥2॥ जाकें बल बिरंचि हरि ईसा। पालत सृजत हरत दससीसा॥ जा बल सीस धरत सहसानन। अंडकोस समेत गिरि कानन॥3॥ भावार्थः-जिनके बल से हे दशशीश! ब्रह्मा, विष्णु, महेश (क्रमशः) सृष्टि का सृजन, पालन और संहार करते हैं, जिनके बल से सहस्रमुख (फणों) वाले शेषजी पर्वत और वनसहित समस्त ब्रह्मांड को सिर पर धारण करते हैं,॥3॥ धरइ जो बिबिध देह सुरत्राता। तुम्ह से सठन्ह सिखावनु दाता॥ हर कोदंड कठिन जेहिं भंजा। तेहि समेत नृप दल मद गंजा॥4॥ भावार्थः-जो देवताओं की रक्षा के लिए नाना प्रकार की देह धारण करते हैं और जो तुम्हारे जैसे मूर्खों को शिक्षा देने वाले हैं, जिन्होंने शिवजी के कठोर धनुष को तोड़ डाला और उसी के साथ राजाओं के समूह का गर्व चूर्ण कर दिया॥4॥ खर दूषन त्रिसिरा अरु बाली। बधे सकल अतुलित बलसाली॥5॥ भावार्थः-जिन्होंने खर, दूषण, त्रिशिरा और बालि को मार डाला, जो सब के सब अतुलनीय बलवान् थे,॥5॥ तास दूत मैं जा करि हरि आनेहु प्रिय नारि॥21॥ भावार्थः-जिनके लेशमात्र बल से तुमने समस्त चराचर जगत् को जीत लिया और जिनकी प्रिय पत्नी को तुम (चोरी से) हर लाए हो, मैं उन्हीं का दूत हूँ॥21॥ सहसबाहु सन परी लराई॥ समर बालि सन करि जसु पावा। सुनि कपि बचन बिहसि बिहरावा॥1॥ भावार्थः-मैं तुम्हारी प्रभुता को खूब जानता हूँ सहस्रबाहु से तुम्हारी लड़ाई हुई थी और बालि से युद्ध करके तुमने यश प्राप्त किया था। हनुमान्जी के (मार्मिक) वचन सुनकर रावण ने हँसकर बात टाल दी॥1॥ खायउँ फल प्रभु लागी भूँखा। कपि सुभाव तें तोरेउँ रूखा॥ सब कें देह परम प्रिय स्वामी। मारहिं मोहि कुमारग गामी॥2॥ भावार्थः-हे (राक्षसों के) स्वामी मुझे भूख लगी थी, (इसलिए) मैंने फल खाए और वानर स्वभाव के कारण वृक्ष तोड़े। हे (निशाचरों के) मालिक! देह सबको परम प्रिय है। कुमार्ग पर चलने वाले (दुष्ट) राक्षस जब मुझे मारने लगे॥2 जिन्ह मोहि मारा ते मैं मारे। तेहि पर बाँधेउँ तनयँ तुम्हारे॥ मोहि न कछु बाँधे कइ लाजा। कीन्ह चहउँ निज प्रभु कर काजा॥3॥ भावार्थः-तब जिन्होंने मुझे मारा, उनको मैंने भी मारा। उस पर तुम्हारे पुत्र ने मुझको बाँध लिया (किंतु), मुझे अपने बाँधे जाने की कुछ भी लज्जा नहीं है। मैं तो अपने प्रभु का कार्य करना चाहता हूँ॥3॥ बिनती करउँ जोरि कर रावन। सुनहु मान तजि मोर सिखावन॥ देखहु तुम्ह निज कुलहि बिचारी। भ्रम तजि भजहु भगत भय हारी॥4॥ भावार्थः-हे रावण! मैं हाथ जोड़कर तुमसे विनती करता हूँ, तुम अभिमान छोड़कर मेरी सीख सुनो। तुम अपने पवित्र कुल का विचार करके देखो और भ्रम को छोड़कर भक्त भयहारी भगवान् को भजो॥4॥ जाकें डर अति काल डेराई। जो सुर असुर चराचर खाई॥ तासों बयरु कबहुँ नहिं कीजै। मोरे कहें जानकी दीजै॥5॥ भावार्थः-जो देवता, राक्षस और समस्त चराचर को खा जाता है, वह काल भी जिनके डर से अत्यंत डरता है, उनसे कदापि वैर न करो और मेरे कहने से जानकीजी को दे दो॥5॥ गएँ सरन प्रभु राखिहैं तव अपराध बिसारि॥22॥ भावार्थः-खर के शत्रु श्री रघुनाथजी शरणागतों के रक्षक और दया के समुद्र हैं। शरण जाने पर प्रभु तुम्हारा अपराध भुलाकर तुम्हें अपनी शरण में रख लेंगे॥22॥ लंका अचल राजु तुम्ह करहू॥ रिषि पुलस्ति जसु बिमल मयंका। तेहि ससि महुँ जनि होहु कलंका॥1॥ भावार्थः-तुम श्री रामजी के चरण कमलों को हृदय में धारण करो और लंका का अचल राज्य करो। ऋषि पुलस्त्यजी का यश निर्मल चंद्रमा के समान है। उस चंद्रमा में तुम कलंक न बनो॥1॥ राम नाम बिनु गिरा न सोहा। देखु बिचारि त्यागि मद मोहा॥ बसन हीन नहिं सोह सुरारी। सब भूषन भूषित बर नारी॥2॥ भावार्थः-राम नाम के बिना वाणी शोभा नहीं पाती, मद-मोह को छोड़, विचारकर देखो। हे देवताओं के शत्रु! सब गहनों से सजी हुई सुंदरी स्त्री भी कपड़ों के बिना (नंगी) शोभा नहीं पाती॥2॥ राम बिमुख संपति प्रभुताई। जाइ रही पाई बिनु पाई॥ सजल मूल जिन्ह सरितन्ह नाहीं। बरषि गएँ पुनि तबहिं सुखाहीं॥3॥ भावार्थः-रामविमुख पुरुष की संपत्ति और प्रभुता रही हुई भी चली जाती है और उसका पाना न पाने के समान है। जिन नदियों के मूल में कोई जलस्रोत नहीं है। (अर्थात् जिन्हें केवल बरसात ही आसरा है) वे वर्षा बीत जाने पर फिर तुरंत ही सूख जाती हैं॥3॥ सुनु दसकंठ कहउँ पन रोपी। बिमुख राम त्राता नहिं कोपी॥ संकर सहस बिष्नु अज तोही। सकहिं न राखि राम कर द्रोही॥4॥ भावार्थः-हे रावण! सुनो, मैं प्रतिज्ञा करके कहता हूँ कि रामविमुख की रक्षा करने वाला कोई भी नहीं है। हजारों शंकर, विष्णु और ब्रह्मा भी श्री रामजी के साथ द्रोह करने वाले तुमको नहीं बचा सकते॥4॥ भजहु राम रघुनायक कृपा सिंधु भगवान॥23॥ भावार्थः-मोह ही जिनका मूल है ऐसे (अज्ञानजनित), बहुत पीड़ा देने वाले, तमरूप अभिमान का त्याग कर दो और रघुकुल के स्वामी, कृपा के समुद्र भगवान् श्री रामचंद्रजी का भजन करो॥23॥ |