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13 जनवरी 2021 , पौष कृष्ण अमावस्या
लोहड़ी

लोहड़ी उत्तर भारत का एक प्रसिद्ध त्योहार है। यह मकर संक्रान्ति के एक दिन पहले मनाया जाता है। मकर संक्रान्ति की पूर्वसंध्या पर इस त्यौहार का उल्लास रहता है। रात्रि में खुले स्थान में परिवार और आस-पड़ोस के लोग मिलकर आग के किनारे घेरा बना कर बैठते हैं। इस समय रेवड़ी, मूंगफली, लावा आदि खाए जाते हैं।



लोहड़ी पौष के अंतिम दिन, सूर्यास्त के बाद (माघ संक्रांति से पहली रात) यह पर्व मनाया जाता है। यह प्राय: १२ या १३ जनवरी को पड़ता है। यह मुख्यत: पंजाब का पर्व है, यह द्योतार्थक (एक्रॉस्टिक) शब्द लोहड़ी की पूजा के समय व्यवहृत होने वाली वस्तुओं के द्योतक वर्णों का समुच्चय जान पड़ता है, जिसमें ल (लकड़ी) +ओह (गोहा = सूखे उपले) +ड़ी (रेवड़ी) = 'लोहड़ी' के प्रतीक हैं। श्वतुर्यज्ञ का अनुष्ठान मकर संक्रांति पर होता था, संभवत: लोहड़ी उसी का अवशेष है। पूस-माघ की कड़कड़ाती सर्दी से बचने के लिए आग भी सहायक सिद्ध होती है-यही व्यावहारिक आवश्यकता 'लोहड़ी' को मौसमी पर्व का स्थान देती है।
लोहड़ी से संबद्ध परंपराओं एवं रीति-रिवाजों से ज्ञात होता है कि प्रागैतिहासिक गाथाएँ भी इससे जुड़ गई हैं। दक्ष प्रजापति की पुत्री सती के योगाग्नि-दहन की याद में ही यह अग्नि जलाई जाती है। इस अवसर पर विवाहिता पुत्रियों को माँ के घर से 'त्योहार' (वस्त्र, मिठाई, रेवड़ी, फलादि) भेजा जाता है। यज्ञ के समय अपने जामाता शिव का भाग न निकालने का दक्ष प्रजापति का प्रायश्चित्त ही इसमें दिखाई पड़ता है। उत्तर प्रदेश के पूर्वांचल में 'खिचड़वार' और दक्षिण भारत के 'पोंगल' पर भी-जो 'लोहड़ी' के समीप ही मनाए जाते हैं-बेटियों को भेंट जाती है।
लोहड़ी से २०-२५ दिन पहले ही बालक एवं बालिकाएँ 'लोहड़ी' के लोकगीत गाकर लकड़ी और उपले इकट्ठे करते हैं। संचित सामग्री से चौराहे या मुहल्ले के किसी खुले स्थान पर आग जलाई जाती है। मुहल्ले या गाँव भर के लोग अग्नि के चारों ओर आसन जमा लेते हैं। घर और व्यवसाय के कामकाज से निपटकर प्रत्येक परिवार अग्नि की परिक्रमा करता है। रेवड़ी (और कहीं कहीं मक्की के भुने दाने) अग्नि की भेंट किए जाते हैं तथा ये ही चीजें प्रसाद के रूप में सभी उपस्थित लोगों को बाँटी जाती हैं। घर लौटते समय 'लोहड़ी' में से दो चार दहकते कोयले, प्रसाद के रूप में, घर पर लाने की प्रथा भी है।
जिन परिवारों में लड़के का विवाह होता है अथवा जिन्हें पुत्र प्राप्ति होती है, उनसे पैसे लेकर मुहल्ले या गाँव भर में बच्चे ही बराबर बराबर रेवड़ी बाँटते हैं। लोहड़ी के दिन या उससे दो चार दिन पूर्व बालक बालिकाएँ बाजारों में दुकानदारों तथा पथिकों से 'मोहमाया' या महामाई (लोहड़ी का ही दूसरा नाम) के पैसे माँगते हैं, इनसे लकड़ी एवं रेवड़ी खरीदकर सामूहिक लोहड़ी में प्रयुक्त करते हैं।
इस दिन सभी सुन्दर और रंग बिरंगे कपडे पहनते है और ढोल (एक संगीत यंत्र) की थाप पर भांगड़ा(गिद्दा) करते है। लोहडी का त्योहार किसानों के लिए नए वित्तीय वर्ष के लिए एक प्रारंभिक रूप का प्रतीक है। यह भारत और विदेशो मे रहने वाले सभी पॅजाबियो द्वारा प्रत्येक वर्ष मनाया जाता है। लोहडी का त्यौहार नविवाहित जोडे के लिये उतना ही महत्वपूर्ण है जितना कि घर मे जन्मे पहले बच्चे के लिये।
इस दिन, दुल्हन सभी चीजो से सुसज्जित होती है, जैसे नई चूड़ियाँ, कपड़े, अच्छी बिंदी, मेंहदी, साड़ी, स्टाइलिश बाल अच्छी तरह नए कपड़े और रंगीन पगड़ी पहने पति के साथ तैयार होती है। इस दिन हर नई दुल्हन को उसकी ससुराल की तरफ से नए कपड़े और गहने सहित बहुत से तोहफे दिये जाते है।
दोनों परिवार (दूल्हे और दुल्हन) के सदस्यों की ओर से और अन्य मुख्य अतिथियो को इस भव्य समारोह में एक साथ आमंत्रित किया जाता है। नविवाहित जोडा एक स्थान पर बैठा दिया जाता है और परिवार के अन्य सदस्यों, पड़ोसियों, दोस्तों, रिश्तेदारों द्वारा उन्हें कुछ उपहार दिये जाते है। वे सब उनके बेहतर जीवन और उज्जवल भविष्य के लिए नये जोड़े को आशीर्वाद देते है।
नवजात शिशु की भी पहली लोहङी बहुत भव्य तरीके से मनायी जाती है। यह परिवार में पैदा हुए नए शिशु के लिए सबसे महत्वपूर्ण अवसर है। हर कोई बच्चे के लिए जरूरी चीजों उपहार के रूप मे देकर परिवार में एक नए बच्चे का स्वागत करते हैं। बच्चे की माँ अच्छी तरह से तैयार बच्चे को अपनी गोद में लेकर एक स्थान पर बैठती हैं। बच्चा नये कपङे, गहनो और मेन्हदी लगे हाथो मे बहुत अच्छा लगता है। बच्चा नाना-नानी और दादा-दादी दोनों की तरफ से (कपड़े, गहने, फल, मूंगफली, मिठाई, आदि सहित) बहुत सारे तोहफे पाता है।