सप्तर्षि - परिचय
सप्तर्षि - परिचय -
हिन्दू धर्म में सप्तर्षि वो सात सर्वोच्च ऋषि हैं जो ब्रह्मा के मानस पुत्र कहलाते हैं। कथाओं के अनुसार जब परमपिता ब्रह्मा ने इस सृष्टि की रचना की तब उन्होंने विश्व में ज्ञान के प्रसार के लिए अपने शरीर से ७ ऋषियों को प्रकट किया और उन्हें वेदों का ज्ञान देकर उस ज्ञान का प्रसार करने को कहा। ये ७ ऋषि ही समस्त ऋषिओं में श्रेष्ठ एवं अग्रगणी, 'सप्तर्षि' कहे जाते हैं। ब्रह्मा के अन्य पुत्रों जैसे मनु, प्रजापति इत्यादि का महत्त्व हो हैं ही किन्तु ब्राह्मणों के प्रणेता होने के कारण सप्तर्षिओं का महत्त्व सबसे अधिक माना जाता है।
आम तौर पर लोगों की धारणा है कि सप्तर्षि सदैव एक ही रहते हैं किन्तु ऐसा नहीं है। बहुत कम लोगों को ये मालूम होगा कि सप्तर्षि भी समय के साथ साथ बदलते रहते हैं। परमपिता ब्रह्मा के आधे दिन को १ कल्प कहते हैं। यह १ कल्प १००० महायुगों का होता है। एक महायुग चारो युगों - सतयुग, त्रेतायुग, द्वापरयुग और कलियुग का योग होता है जिसे चतुर्युग भी कहते हैं। ब्रह्मा के एक दिन में १४ मनु राज्य करते हैं। एक मनु के शासन को मन्वन्तर कहा जाता है, अर्थात १४ मन्वन्तरों का १ कल्प कहा जाता है। इस प्रकार एक मनु का शासन काल करीब ७२ महायुगों का होता है। प्रत्येक मन्वन्तर पर सप्तर्षि के सदस्य बदल जाते हैं। ये जरुरी नहीं कि सभी, किन्तु अधिकतर पुराने ऋषि अगले मवंतर में सप्तर्षि के सदस्य नहीं रहते और नए ऋषि एक समूह में जुड़ते हैं।
इस प्रकार सप्तर्षि को आप एक पदवी भी मान सकते हैं। जिस प्रकार इंद्र कोई एक निश्चित देवता नहीं अपितु एक पदवी है, उसी सप्तर्षि भी कोई निश्चित ७ ऋषि नहीं अपितु एक पदवी है जिसमे अन्य ऋषि भी समय-समय पर शामिल होते रहते हैं। हालाँकि अगर सबसे प्रामाणिक सप्तर्षियों की बात होती है तो सबसे पहले मनु 'स्वम्भू मनु' के शासन काल में हुए सप्तर्षियों का ही वर्णन किया जाता है। हालाँकि वर्तमान में सातवें मनु 'वैवस्वत मनु' का शासनकाल चल रहा है किन्तु इस श्रृंखला में हम भी स्वयंभू मनु के मवंतर के सप्तर्षियों पर ही लेख लिखेंगे।
पुराणों में ये वर्णिन है कि इस संसार में जो भी महान ऋषि हुए वे कहीं ना कहीं इन्ही सप्तर्षियों से सम्बंधित थे। चाहे वो संतान के रूप में हो अथवा शिष्य के रूप में। इसके अतिरिक्त आज हिन्दू धर्म में जितने भी गोत्र हैं वो भी इन्ही से सम्बंधित माने जाते हैं। जिन भी ऋषियों पर हिन्दू धर्म में गोत्र की परंपरा चली, वो या तो इन्ही सप्तर्षियों के पुत्र अथवा शिष्य थे अथवा उन्होंने भी आगे चलकर सप्तर्षियों का पद धारण किया।
हमारे पास ऐसे कई उदाहरण हैं जिसमे एक मनुष्य अथवा अन्य जाति के व्यक्ति ने अपने जीवन काल में इतने महान और श्रेष्ठ कर्म किये जिससे उन्हें देवताओं के समकक्ष माना गया। उदाहरण के लिए श्रीराम, श्रीकृष्ण अथवा हनुमान मनुष्य और वानर योनि में जन्म लेकर भी अपने महान कर्मों के कारण देवता के समतुल्य या उनसे भी श्रेष्ठ माने जाते हैं। ठीक उसी प्रकार समय-समय पर ऐसे कोई भी महर्षि जिन्होंने विश्व कल्याण में अपना अमूल्य योगदान दिया, उन्हें उस कारण से सप्तर्षियों में शामिल किया गया। दूसरे शब्दों में कहें तो उन्हें विश्व कल्याण में किये गए उनके योगदान के लिए सप्तर्षि की पदवी से सम्मानित किया गया।
पहले मनु के शासन काल में जो ७ महर्षि सप्तर्षि कहलाये वो सभी परमपिता ब्रह्मा के पुत्र थे किन्तु आने वाले मवन्तरों में जो जो नए ऋषि इस समूह से जुड़े उनके साथ ब्रह्मा के पुत्र होने की अनिवार्यता नहीं थी। यही नहीं, इस सूची में कई ऐसे ऋषि भी हैं जो पहले रहे सप्तर्षि के पुत्र हैं और बाद में उन्होंने भी सप्तर्षि का पद ग्रहण किया। अर्थात स्वयंभू मनु के बाद जो भी सप्तर्षि हुए, वे केवल अपने जन्म के आधार पर नहीं अपितु कर्म के आधार पर ही सप्तर्षि बनें। तो इस प्रकार सप्तर्षि कर्म की प्रधानता का भी प्रतिनिधित्व करते हैं। यही नहीं, प्रलय के समय भी भगवान विष्णु जब मत्स्य अवतार लेते हैं तो मनु सर्वप्रथम सप्तर्षि को साथ रखते हैं।
ब्रह्मा के पुत्रों मनु और प्रजापति (दक्ष इत्यादि, कई जगह सप्तर्षियों को ही प्रजापति कहा गया है) के धार्मिक अनुष्ठान स्वयं सप्तर्षि ही करते हैं। वे ही इनके कुलगुरु भी होते हैं जिनके मार्गदर्शन में वे अपना शासन धर्मपूर्वक और सुचारु ढंग से चलाते हैं। इसके अतिरिक्त ब्रह्मा के अन्य पुत्रों जैसे सनत्कुमारों, नारद इत्यादि से भी इनका सम्बन्ध होता है। इनके बाद उनके ज्येठ अथवा श्रेष्ठ पुत्र को वही सम्मान मिल सकता है किन्तु ऐसा हर बार हो ये अनिवार्य नहीं है। सप्तर्षियों का स्थान 'सप्तर्षि मण्डल' को माना जाता है जहाँ सभी सप्तर्षि स्थित होते हैं। इसके अतिरिक्त इनके पास पृथ्वीलोक सहित किसी भी अन्य लोकों में आने-जाने की शक्ति और स्वतंत्रता होती है।
ऐसा भी कहा गया है कि सप्तर्षियों को त्रिदेवों से मिलने के लिए तपस्या करने की आवश्यकता नहीं है और वे अपनी इच्छा एवं त्रिदेवों की आज्ञा से से उनके दर्शनों के लिए जा सकते हैं। हालाँकि ऐसा केवल वही सप्तर्षि कर सकते हैं जो परमपिता ब्रह्मा के पुत्र हैं, अर्थात स्वयंभू मनु के शासनकाल के समय के सप्तर्षि। अन्य सप्तर्षि देवताओं से तो मिल सकते हैं किन्तु त्रिदेवों के दर्शनों के लिए उन्हें भी तपस्या करनी पड़ती है। यही कारण है कि प्रथम सप्तर्षियों का महत्त्व अन्य सप्तर्षियों से अधिक माना जाता है।
सभी सप्तर्षियों की आयु के विषय में कुछ मतभेद है। जहाँ कई ग्रन्थ सप्तर्षियों की आयु मनु की आयु (७२ महायुग) के बराबर बताते हैं तो कुछ ग्रन्थ सप्तर्षियों की आयु एक कल्प (१००० महायुग) के बराबर बताते हैं। अगर उनकी आयु १ कल्प की मानी जाये तो हम सभी सप्तर्षियों को अमर भी कह सकते हैं। यहाँ ध्यान देने की बात ये है कि अमरता कभी ना मरने को नहीं कहते हैं। इसके बारे में कभी और विस्तार से चर्चा की जाएगी।
सप्तर्षियों में कोई बड़ा या छोटा नहीं होता। हालाँकि इनमे से कुछ सप्तर्षि ऐसे हैं जो पृथ्वी पर कुछ अधिक ही सक्रिय रहे और इसी कारण अन्य ऋषियों, जो मूलतः सप्तर्षि मंडल में रहे, उनसे कुछ अधिक प्रसिद्ध हुए और हम मनुष्य उन्हें अधिक जानते हैं। उदाहरण के लिए वशिष्ठ, कश्यप, अत्रि, विश्वामित्र इत्यादि किन्तु सभी सप्तर्षि सामान रूप से प्रतिष्ठित एवं आदरणीय माने जाते हैं।
हर मनु के शासन काल के अतिरिक्त विभिन्न धार्मिक ग्रंथों में अलग-अलग सप्तर्षियों का वर्णन दिया गया है। उदाहरण के लिए जैमनीय ब्राहण, उपनिषद और महाभारत के अनुसार भी सप्तर्षि अलग-अलग बताये गए हैं। अगले लेख में हम ये जानेंगे कि कौन-कौन से मनु के शासनकाल में कौन-कौन ऋषि सप्तर्षि कहलाते थे।
किस मनु के शासनकाल में कौन-कौन से ऋषि सप्तर्षि कहलाये।
01- स्वयंभू मनु -
परमपिता ब्रह्मा के सातों मानस पुत्र -
- मरीचि
- अत्रि
- अंगिरस
- पुलह
- क्रतु
- पुलत्स्य
- वशिष्ठ
02- स्वरोचिष मनु -
- ऊर्ज्ज
- स्तम्भ
- वात
- प्राण
- पृषभ
- निरय
- परीवान
03- उत्तम मनु - -
महर्षि वशिष्ठ के सातों पुत्र
- कुकुण्डिहि
- कुरूण्डी
- दलय
- शंख
- प्रवाहित
- मित
- सम्मित
04- तामस मनु (तापस मनु) -
- ज्योतिर्धाम
- पृथु
- काव्य
- चैत्र
- अग्नि
- वनक
- पीवर
05- रैवत मनु -
- हिरण्यरोमा
- वेदश्री
- ऊर्ध्वबाहु
- वेदबाहु
- सुधामा
- पर्जन्य
- महामुनि
06- चाक्षुषी मनु -
- सुमेधा
- विरजा
- हविष्मान
- उतम
- मधु
- अतिनामा
- सहिष्णु
07- वैवस्वत मनु (श्राद्धदेव मनु) -
- कश्यप
- अत्रि
- वशिष्ठ
- विश्वामित्र
- गौतम
- जमदग्नि
- भारद्वाज
08- सावर्णि मनु -
- गालव
- दीप्तिमान
- परशुराम
- अश्वत्थामा
- कृप
- ऋष्यश्रृंग
- व्यास
09- दक्ष-सावर्णि मनु -
- मेधातिथि
- वसु
- सत्य
- ज्योतिष्मान
- द्युतिमान
- सवन
- भव्य
10- ब्रह्म-सावर्णि मनु -
- तपोमूर्ति
- हविष्मान
- सुकृत
- सत्य
- नाभाग
- अप्रतिमौजा
- सत्यकेतु
11- धर्म-सावर्णि मनु -
- वपुष्मान्
- घृणि
- आरुणि
- नि:स्वर
- हविष्मान्
- अनघ
- अग्नितेजा
12- रूद्र-सावर्णि मनु -
- तपोद्युति
- तपस्वी
- सुतपा
- तपोमूर्ति
- तपोनिधि
- तपोरति
- तपोधृति
13- देव-सावर्णि मनु (रौच्य मनु) -
- धृतिमान्
- अव्यय
- तत्त्वदर्शी
- निरूत्सुक
- निर्मोह
- सुतपा
- निष्प्रकम्प
14- इंद्र-सावर्णि मनु (भौत मनु) -
- अग्नीध्र
- अग्नि
- बाहु
- शुचि
- युक्त
- मागध
- अजित
इसके अतिरिक्त विभिन्न धर्म ग्रंथों में भी सप्तर्षियों का अलग-अलग वर्णन है। आपको ये जानकर हैरानी होगी कि जैन धर्म में भी सप्तर्षियों की अवधारणा है। वहाँ इन्हे 'सप्त दिगंबर' कहा जाता है। तो आइये इनके बारे में जानते हैं।
- जैमिनीय ब्राह्मण के अनुसार
- अगस्त्य
- अत्रि
- भारद्वाज
- गौतम
- जमदग्नि
- वशिष्ठ
- विश्वामित्र
- बृहदरण्यक उपनिषद के अनुसार
- गौतम
- भारद्वाज
- विश्वामित्र
- जमदग्नि
- वशिष्ठ
- कश्यप
- भृगु
- गोपथ ब्राह्मण के अनुसार
- वशिष्ठ
- विश्वामित्र
- जमदग्नि
- गौतम
- भारद्वाज
- अगस्त्य
- भृगु
- शतपथ ब्राह्मण के अनुसार
- अत्रि
- भारद्वाज
- गौतम
- जमदग्नि
- कश्यप
- वशिष्ठ
- विश्वामित्र
- कृष्ण यजुर्वेद के अनुसार
- अंगिरस
- अत्रि
- भृगु
- गौतम
- कश्यप
- कुत्स
- वशिष्ठ
- महाभारत के अनुसार
- मरीचि
- अत्रि
- पुलह
- पुलत्स्य
- क्रतु
- वशिष्ठ
- कश्यप
- वृहत संहिता के अनुसार
- मरीचि
- वशिष्ठ
- अंगिरस
- अत्रि
- पुलत्स्य
- पुलह
- क्रतु
- जैन धर्म के अनुसार (जैन धर्म में इन्हे सप्त दिगंबर कहते हैं)
- सुरमन्यु
- श्रीमन्यु
- श्रीनिचय
- सर्वसुन्दर
- जयवाण
- विनायलाला
- जयमित्र