जब अग्निदेव बीमार पड़ गए
सृष्टि आरंभ हुई तो भगवान विष्णु की नाभि से सबसे पहले ब्रह्मा प्रकट हुए। उन्हें संसार की रचना और उसके विस्तार का दायित्व सौंप दिया गया। तब उन्होंने अत्रि, अंगिरा, पुलस्त्य, मरीचि, पुलह, क्रतु, भृगु, वसिष्ठ, दक्ष और नारद नाम के दस पुत्रों की कामना की। ये सब ब्रह्मा के मन से उत्पन्न हुए, इसलिए ब्रह्मा के ‘मानस-पुत्र’ कहलाए। इन्हें संयुक्त रूप से ‘प्रजापति’ भी कहते हैं। इनमें अंगिरा के पुत्र बृहस्पति ने चांद्रमासी नाम की कन्या से विवाह किया। उनके पहले पुत्र का नाम शंयु था। उसने धर्म की पुत्री सत्या से विवाह किया, जिससे ‘अग्नि’ नामक पुत्र ने जन्म लिया।
पुराणों में आठ दिशाओं के आठ रक्षक देवता हैं, जिन्हें अष्ट-दिक्पाल कहते हैं। इनमें दक्षिण-पूर्व (आग्नेय) दिशा के रक्षक अग्निदेव हैं। इसलिए कई जगह अग्निदेव की प्रतिमा मंदिर के दक्षिण-पूर्वी कोण में स्थापित होती है। संसार की रचना करने वाले पंचमहाभूत तत्वों आकाश, जल, पृथ्वी और वायु के साथ पांचवां तत्व अग्नि है। अग्नि को पूजा, विवाह जैसे अधिकांश धार्मिक अनुष्ठानों का साक्षी माना जाता है।
देवताओं में इंद्र के बाद अगला स्थान अग्निदेव का है। ऋग्वेद की कुल 1028 ऋचाओं में से लगभग 200 ऋचाएं अग्निदेव को समर्पित हैं। उपनिषदों, पुराणों समेत लगभग सभी धर्म-ग्रंथों में अग्नि का विस्तार से उल्लेख मिलता है। हिंदू संस्कृति में जन्म से मृत्यु तक कोई काम अग्नि के बिना पूर्ण नहीं होता। ऋग्वेद में अग्नि के दो स्वरूप बताए गए हैं: जातवेद और क्रव्याद।
अग्नि का जातवेद रूप, हवन-कुंड में दी गई आहुति को देवताओं तक पहुंचाता है। इसलिए यह मनुष्य और देवताओं के बीच की महत्त्वपूर्ण कड़ी है। अग्नि का क्रव्याद रूप, अंतिम संस्कार के समय शव को जलाकर भस्म करता है। इस तरह हिंदू धर्म में अग्नि का स्थान इतना महत्वपूर्ण है कि उसे देवता का दर्जा दिया गया है। आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि यज्ञ की अग्नि में संपन्नता और अच्छे स्वास्थ्य के लिए जो आहुति दी जाती है, उसी आहुति से एक बार अग्निदेव स्वयं बीमार पड़ गए थे।
बात उन दिनों की है जब कौरवों और पांडवों के बीच राज्य को लेकर मन-मुटाव बहुत बढ़ चुका था। भविष्य में लड़ाई-झगड़े की संभावना को देखते हुए हस्तिनापुर का बंटवारा कर दिया गया, लेकिन हमेशा की तरह पांडवों के साथ छल हुआ। पहले से स्थापित हस्तिनापुर राज्य, कौरवों को मिला और ऊसर भूमि एवं वन्य-क्षेत्र वाला खांडव प्रदेश पांडवों के हिस्से में आया।
परंतु साहसी और परिश्रमी पांडव उस बंजर राज्य को भी समृद्ध बनाने के लिए तत्पर हो गए। वासुदेव कृष्ण को शुरू से पांडव ही प्रिय थे। वह प्राय: उनसे मिलने जाते रहते थे। एक दिन श्रीकृष्ण और अर्जुन यमुना किनारे टहल रहे थे। तभी उनकी भेंट एक ब्राह्मण से हो गई। वह बहुत बीमार दिख रहा था। उसका तन दुर्बल था और चेहरा पीला पड़ चुका था। देखते ही श्रीकृष्ण समझ गए कि यह ब्राह्मण कोई और नहीं, स्वयं अग्निदेव हैं। कृष्ण ने अग्निदेव से वेश बदलने का कारण पूछा।
अग्निदेव ने उदास स्वर में कहा, ‘हे मुरारी! मुझे यह सोचकर बुरा लग रहा है कि संपन्नता और स्वास्थ्य देने वाले यज्ञ से ही मैं बीमार हो गया हूं। इसलिए सबसे मुंह छिपाए इधर-उधर भटक रहा हूं।’ फिर अग्निदेव अपने असली रूप में प्रकट हो गए। उनका तेज और बल सचमुच क्षीण हो गया था।
अर्जुन ने अग्निदेव से उनके बीमार होने का कारण पूछा, तो उन्होंने ठंडी श्वास भरी और फिर अपनी बीमारी की कथा आरंभ कर दी: बहुत समय पहले, श्वेतकि नाम का एक अत्यंत पराक्रमी और दानवीर राजा था। वह लगातार यज्ञ करवाता रहता था, जिससे उसका यज्ञ करवाने वाले ब्राह्मण (ऋत्विज) थक जाते थे और उनकी आंखें यज्ञ के धुएं से जलने लगती थीं।
एक दिन श्वेतकि ने एक सौ वर्ष तक निरंतर चलने वाला यज्ञ करने का संकल्प किया। परंतु इतने लंबे यज्ञ के लिए किसी ऋत्विज ने हामी नहीं भरी। श्वेतकि ने थक कर भगवान शिव को प्रसन्न करने के लिए कठोर तप किया। शिव ने प्रसन्न होकर श्वेतकि को दर्शन दिए और उसकी इच्छा पूछी, तो श्वेतकि ने शिव से ही उसका यज्ञ करवाने का आग्रह कर दिया।
शिव दुविधा में पड़ गए। फिर कुछ सोचकर उन्होंने श्वेतकि से कहा, ‘मेरा कार्य यज्ञ करवाना नहीं है। परंतु तुमने बहुत कठोर तप किया है और वह विफल नहीं जाएगा। मेरी एक शर्त है। यदि तुम ब्रह्मचर्य का पालन करते हुए बारह वर्ष तक अग्नि में घृत (घी) की अटूट धारा अर्पित करके अग्नि को तृप्त कर दोगे तो मैं तुम्हारे यज्ञ का प्रबंध करवा दूंगा।’
शिव की शर्त बहुत विचित्र थी किंतु श्वेतकि भी हठी था। उसने शर्त मान ली और वह निरंतर बारह वर्ष तक अग्नि में घी की अटूट धारा अर्पित करता रहा। बारह वर्ष समाप्त होने पर शिव प्रसन्न हो गए। उन्होंने महर्षि दुर्वासा को बुलाया और उन्हें श्वेतकि का यज्ञ संपन्न करवाने की आज्ञा दी। यह दुर्वासा के लिए भी कठिन कार्य था, किंतु शिव के कहने पर उन्हें श्वेतकि का यज्ञ करवाना पड़ा। इससे श्वेतकि का संकल्प तो पूरा हो गया, लेकिन अग्निदेव के लिए बहुत भारी समस्या उत्पन्न हो गई।
अग्निदेव पहले ही श्वेतकि के हाथों बारह वर्ष तक घी का निरंतर सेवन कर चुके थे। इस कारण उन्हें और आहुति ग्रहण करने की बिल्कुल इच्छा नहीं थी। परंतु शिव की आज्ञा थी। दुर्वासा ने श्वेतकि का यज्ञ करवाया, तो अग्निदेव को भी अनिच्छा से सौ वर्ष तक आहुति ग्रहण करनी पड़ी। इससे अग्निदेव को भारी अपच हो गया और उनके पेट में तेज दर्द रहने लगा।
अग्निदेव से जब पेट-दर्द सहन नहीं हुआ तो वह सहायता मांगने भगवान ब्रह्मा के पास पहुंचे।
‘प्रभु, मेरे उदर-रोग का उपचार नहीं हुआ तो मैं मर जाऊंगा!’ अग्निदेव ने कराहते हुए पेट पकड़कर ब्रह्मा से कहा, ‘मुझे इस भयानक कष्ट से मुक्ति दिलाइए।’ भगवान ब्रह्मा अग्निदेव के कष्ट का कारण जानते थे। अच्छी बात यह थी उन्हें अपच का उपचार भी पता था। ब्रह्मा मुस्कराए और बोले, ‘तुम्हारी समस्या का उपाय है - खाण्डव-दहन!’
‘मैं आपका आशय नहीं समझा?’ अग्निदेव ने आश्चर्य से कहा। ब्रह्मा ने कहा, ‘तुम्हें खांडव वन को जलाना होगा। उसमें रहने वाले जंगली पशु-पक्षियों के मेद (चर्बी) और रक्त के सेवन से तुम्हारा अपच दूर हो सकता है।’
भगवान शिव ने जैसे श्वेतकि के सामने बारह वर्ष घी अर्पित करने की अनोखी शर्त रखी थी, उसी तरह ब्रह्मा का बताया यह उपचार भी विचित्र था। लेकिन अग्निदेव के लिए पेट-दर्द असहनीय हो चुका था। उन्होंने ब्रह्मा की बात मानकर खांडव वन को जलाने का सात बार प्रयास किया, किंतु हर बार असफल रहे।
कारण यह था कि तक्षक नाम का एक भयंकर सर्प अपने परिवार सहित खांडव वन में रहता था और उसकी वर्षा के देवता इंद्र से पुरानी मित्रता थी। अग्निदेव जैसे ही वन को जलाने का प्रयत्न करते, तक्षक अपने मित्र इंद्र को सहायता के लिए बुला लेता था। इंद्रदेव मूसलाधार वर्षा करके आग को बुझा देते थे। फलस्वरूप, अग्निदेव बहुत प्रयास करके भी खांडव को जला नहीं सके और उनका पेट-दर्द बढ़ता गया।
आठवीं बार जब अग्निदेव खांडव पहुंचे, तो वहां उनकी भेंट कृष्ण और अर्जुन से हुई और अग्निदेव ने उन्हें अपनी व्यथा सुनाई। कृष्ण को यह पता लगा, तो उन्हें इंद्र पर बड़ा क्रोध आया। उन्होंने अग्निदेव से कहा, ‘आप निश्चिंत रहिए। हमें केवल एक रथ और कुछ अस्त्र-शस्त्र चाहिए। इतना प्रबंध करके फिर आप वन को जला दीजिए। मैं वचन देता हूं कि इस बार इंद्र को आग बुझाने में सफलता नहीं मिलेगी। वन के जलने से आपको पशुओं का भरपूर मेद मिलेगा और आपका अपच ठीक हो जाएगा।’
अग्निदेव का चेहरा प्रसन्नता से खिल उठा। उन्होंने वरुणदेव से कहकर कृष्ण को सुदर्शन-चक्र तथा अर्जुन को गांडीव धनुष, एक अक्षय तरकस और चार घोड़ों वाला एक रथ दिलवा दिया। इन अस्त्र-शस्त्रों के साथ अर्जुन और कृष्ण खाण्डव-वन की सीमा पर खड़े हो गए। फिर अग्निदेव ने वन में आग लगा दी। संयोग से तक्षक नाग उस समय वन में नहीं था। परंतु उसकी पत्नी और पुत्र अश्वसेन मौजूद थे।
आग की गर्मी से दोनों बाहर निकल आए। अर्जुन ने तक्षक की पत्नी को मार डाला, लेकिन अश्वसेन बच निकला। आग और भड़की तो जंगली पशु-पक्षी निकलकर भागने लगे, किंतु अर्जुन और कृष्ण ने सबको मार डाला। अधिकतर पशु-पक्षी धुएं के कारण दम घुटने से मर गए। अग्निदेव को काफी मेद और रक्त मिल गया, परंतु उनका अपच दूर करने के लिए वह पर्याप्त नहीं था।
इस बीच खांडव से उठती हुई लपटें और वन्य-पशुओं की चीख-पुकार देवलोक जा पहुंची। देवराज इंद्र ने खांडव को जलता देखा, तो उन्होंने मूसलाधार वर्षा शुरू कर दी। वन पूरा जला भी नहीं था कि वर्षा ने आग को मंद कर दिया। अग्निदेव को फिर चिंता हुई क्योंकि उनका अपच ठीक नहीं हुआ था। परंतु अर्जुन ने समय पर पहुंचकर विलक्षण धनुर्विद्या से वन के ऊपर बाणों का एक सघन छत्र बना दिया, जिसने वर्षा को नीचे गिरने से रोक दिया। वर्षा थमी तो आग भड़क उठी और खांडव फिर से जलने लगा। पशु-पक्षी फिर मरने लगे और अग्निदेव को मेद और रक्त मिलता गया।