कर्णवध के समाचार से प्रसन्न हुए युधिष्ठिर ने कृष्ण और अर्जुन की जमकर प्रशंसा की
महाभारत युद्ध के सत्रहवें दिन जब अर्जुन ने कर्ण का वध कर दिया तो कौरव सेना में हाहाकार मच गया | पूरी कौरव सेना छिन्न-भिन्न हो गयी | सब-के-सब उद्विग्न होकर भाग गये । अब उन्हें अपने जीवन और राज्य की आशा न रही । दुर्योधन दुःख और शोक में डूब रहा था, वह बड़े यत्न से सबको एकत्र करके छावनी में ले आया । राजा की आज्ञा मान सभी सैनिकों ने शिविर में आकर विश्राम किया । उस समय सबका चेहरा फीका पड़ गया था |
संजय धृतराष्ट्र से कहते हैं-राजन् ! इस प्रकार जब कर्ण मारा गया और कौरव-सेना भाग खड़ी हुई तो भगवान् श्रीकृष्ण ने अर्जुन को छाती से लगाकर बड़े हर्ष के साथ कहा “पार्थ! इन्द्र ने वृत्रासुर को मारा था और तुमने कर्ण को मार गिराया है । आज से संसार के लोग वृत्रासुर वध की तरह कर्ण वध की कथा कहे-सुनेंगे । तुम बहुत दिनों से युद्ध में कर्ण का वध करना चाहते थे, आज वह अभीष्ट पूरा हुआ; अतः धर्म राज से यह शुभ समाचार बताकर तुम उनसे उऋण हो जाओ । तुममें और कर्ण में जब महासंग्राम छिड़ा हुआ था, उस समय वे भी युद्ध देखने के लिये आये थे मगर बहुत अधिक घायल होने के कारण देर तक यहाँ ठहर नहीं सके, फिर छावनी में ही चले गये । अतः हमें उन्हीं के पास चलना चाहिये” ।
अर्जुन ने ‘बहुत अच्छा’ कह कर आज्ञा स्वीकार की | फिर भगवान ने अपना रथ उधर ही मोड़ दिया । छावनी पर पहुँचकर वे अर्जुन को साथ ले राजा युधिष्ठिर से मिले । राजा उस समय सोने के पलंग पर सो रहे थे । श्रीकृष्ण और अर्जुन ने प्रसन्नता पूर्वक उनके चरणों में प्रणाम किया । उन दोनों की प्रसन्नता देख कर्ण को मरा समझकर युधिष्ठिर उठ बैठे और आनन्दातिरेक से आँसू बहाने लगे । फिर उन दोनों को छाती से लगाकर मिले और बारंबार युद्ध का समाचार पूछने लगे । तब भगवान् श्री कृष्ण ने रण भूमि में जो कुछ घटना घटित हुई थी, सब कह सुनायी; अन्त में कर्ण के मरने की भी बात बतायी ।
इसके बाद भगवान् कुछ-कुछ मुसकराते हुए हाथ जोड़कर बोले “महाराज ! बड़े सौभाग्य की बात है कि आप, भीमसेन, अर्जुन तथा नकुल-सहदेव भी कुशल से हैं । महारथी कर्ण मारा गया और आपकी विजय तथा अभिवृद्धि हो रही है-यह भी बड़े आनन्द की बात है । आज सूतपुत्र के सारे शरीर में बाण चुभे हुए हैं और वह भूतल पर पड़ा हुआ है; इस अवस्था में आप अपने शत्रु को चलकर | देखिये । महाबाहो ! अब आप पृथ्वी का अकण्टक राज्य भोगिये” ।
भगवान् श्री कृष्ण का वचन सुनकर धर्मराज बहुत प्रसन्न हुए और बोले “देवकीनन्दन! यह बड़े आनन्द की बात हुई । आप सारथि थे, तभी अर्जुन कर्ण को मार सके हैं । यह आपकी बुद्धि का ही प्रसाद है, इसमें आश्चर्य की कोई बात नहीं है” । यह कहकर युधिष्ठिर ने श्री कृष्ण की दाहिनी बाँह पकड़ ली । फिर दोनों से कहा “नारद जी ने मुझे बताया था कि अर्जुन और श्रीकृष्ण पुरातन नर-नारायण ऋषि हैं । तत्त्वज्ञानी श्री व्यास जी ने भी कई बार इस बात की चर्चा की थी ।
कृष्ण ! आपकी ही कृपा से ये पाण्डुनन्दन अर्जुन शत्रुओं का सामना करके विजय पाते गये हैं । जिस दिन आपने युद्ध में अर्जुन का सारथि होना स्वीकार किया उसी दिन यह निश्चय हो गया था कि हमारे पक्ष की विजय ही होगी, पराजय नहीं । जब भीष्म, द्रोण तथा कर्ण-जैसे वीर आपकी बुद्धि से मारे जा चुके हैं तो बाकी लोगों को, जो उन्हीं के अनुयायी हैं, मैं मरे हुए के समान ही मानता हूँ” । यों कहकर राजा युधिष्ठिर सोने से सजाये हुए रथ पर बैठकर श्रीकृष्ण तथा अर्जुन के साथ रणभूमि देखने को चले । वहाँ पहुँचने पर उन्होंने देखा कि नररत्न कर्ण सैकड़ों बाणों से छिदा हुआ पृथ्वी पर पड़ा है । उस समय सुगन्धित तेल से भरकर हजारों सोने के दीपक जलाये गये । उन्हीं के प्रकाश में सब लोगों ने कर्ण के शरीर पर दृष्टिपात किया ।
उसका कवच छिन्न-भिन्न हो गया था और शरीर बाणों से विदीर्ण हो चुका था । कर्ण को पुत्र सहित मरा हुआ देख राजा युधिष्ठिर पुनः श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा करते हुए कहने लगे “गोविन्द ! आप वीर और विद्वान् होने के साथ ही मेरे स्वामी हैं; आप से सुरक्षित रहकर आज सचमुच ही मैं भाइयो सहित राजा हो गया । राधानन्दन कर्ण को मारा गया सुनकर दुरात्मा दुर्योधन अब राज्य और जीवन दोनों से निराश हो जायगा । पुरुषोत्तम ! आपकी कृपा से हम लोग कृतार्थ हो गये । बड़ी खुशी की बात है कि गाण्डीवधारी अर्जुन की विजय हुई” । इस प्रकार राजा युधिष्ठिर ने श्रीकृष्ण और अर्जुन की प्रशंसा की ।
उस समय नकुल, सहदेव, भीमसेन, सात्यकि, धृष्टद्युम्न और शिखण्डी ने तथा पाण्डव, पांचाल और संजय योद्धाओं ने ‘महाराज का अभ्युदय हो’ ऐसा कहकर युधिष्ठिर का सम्मान किया । फिर श्रीकृष्ण और अर्जुन का गुणगान करते हुए वे बड़ी प्रसन्नता के साथ शिविर की ओर चले गये । राजा धृतराष्ट्र ! आपके ही अन्याय से यह रोमांचकारी संहार हुआ है; अब क्यों बारंबार सोच कर रहे हैं? उधर यह अप्रिय समाचार सुनते ही राजा धृतराष्ट्र मूर्छित होकर जड़ से कटे हुए वृक्ष की भाँति जमीन पर गिर पड़े । इसी तरह दूर तक सोचने वाली गान्धारी देवी भी पछाड़ खाकर गिरीं और बहुत विलाप करती हुई कर्ण की मृत्यु के शोक में डूब गयीं ।
उस समय गान्धारी को विदुर जी ने और राजा को संजय ने सँभाला । फिर दोनों मिलकर धृतराष्ट्र को समझाने-बुझाने लगे । और राजमहल की स्त्रियों ने आकर गान्धारी को उठाया। राजा को बड़ी व्यथा हुई, उनकी विवेक शक्ति नष्ट हो गयी, वे चिन्ता और शोक में डूब गये । मोहाच्छन्न हो जाने के कारण उन्हें किसी भी बात की सुध न रही । विदुर और संजय के बहुत आश्वासन देने पर प्रारब्ध और भवितव्यताको ही प्रधान मानकर वे चुपचाप बैठे रह गये ।