इंसान की सेवा करना ईश्वर की सच्ची सेवा हैं
एकबार जब स्वामी विवेकानन्द अपने ठाकुर सद्गुरु रामकृष्ण परमहंस जी के पास आते है और कहते है की मै तपस्या करना चाहता हूं तो रामकृष्ण परमहंस ने कहा की जब तुम्हारे आस पास के लोग दुःख और दरिद्रता से व्यथित हो तो क्या तुम्हारा मन तपस्या में लग पायेगा, तुम्हे तो तपस्या की बात अपने मन से निकालकर समाज कल्याण के बारे में ध्यान लगाना चाहिए । ऐसी बाते सुनकर स्वामी विवेकानन्द अपने मन से तपस्या की बात निकालकर समाज कल्याण में जुट गये अर्थात रामकृष्ण परमहंस एक महान सच्चे समाज सुधारक थे रामकृष्ण परमहंस के प्रभाव में जो भी लोग आते थे वे सभी अपने मन की भ्रान्ति को निकालकर समाज कल्याण में जुट जाते थे ।
दुनिया का एकमात्र ईश्वर ही पथ प्रदर्शक और सच्ची राह दिखलाने वाला है । यदि हम कर्म करते है तो अपने कर्म के प्रति भक्ति का भी होना परम आवश्यक है तभी वह कर्म सार्थक हो सकता है । नाव को सदैव जल में ही रहना चाहिए जबकि जल को कभी भी नाव में नही होंना चाहिए ठीक उसी प्रकार भक्ति करने वाले इस दुनिया में रहे लेकिन जो भक्ति करे उसके मन में सांसारिक मोहमाया नही होना चाहिए ।
जिस प्रकार गंदे शीशे पर सूर्य की रौशनी नही पड़ती ठीक उसी प्रकार गंदे मन वालों पर ईश्वर के आशीर्वाद का प्रकाश नहीं पड़ सकता है । संसार का कोई भी इन्सान अगर अपने जीवन में पूरी ईमानदारी से ईश्वर के प्रति समर्पित नहीं है तो उस इन्सान को अपने जीवन से कोई भी उम्मीद नही रखनी चाहिए । ईश्वर दुनिया के हर कण में विद्यमान है और और ईश्वर के रूप इंसानों से आसानी से देखा जा सकता है इसलिए इंसान का सेवा करना ईश्वर की सच्ची सेवा है ।
ईश्वर सभी इंसानों में है लेकिन सभी इंसानों में ईश्वर का भाव हो ये जरुरी हो नहीं है इसलिए हम इन्सान अपने दुखों से पीड़ित है । सत्य की राह बहुत ही कठिन है और जब हम सत्य की राह पर चले तो हमे बहुत ही एकाग्र और नम्र होना चाहिए क्यूंकि सत्य के माध्यम से ही ईश्वर का बोध होता है । अगर हमे पूर्व दिशा की तरफ जाना है तो हमे कभी भी पश्चिम दिशा में नही जाना चाहिए यानि यदि हमे सफलता की दिशा में जाना है तो कभी भी सफलता के विपरीत दिशा में नही जाना चाहिए ।
जब हवा चले तो पंखा चलाना छोड़ सकते है लेकिन जब ईश्वर की कृपादृष्टि हो तो हमे ईश्वर की भक्ति नही छोडनी चाहिए । अथाह सागर में पानी और पानी का बुलबुला दोनों एक ही चीज है ठीक उसी प्रकार ईश्वर और जीवात्मा दोनों एक ही है, बस फर्क इतना है की ईश्वर सागर की तरह अनंत तो जीवात्मा बुलबुले की तरह सिमित है । जब तक हमारे मन में इच्छा है तब तक हमे ईश्वर की प्राप्ति नहीं हो सकती है । ईश्वर की कृपा पाना है तो अपना जीवन समाज भलाई में लगाना चाहिए ।
जब फूल खिलता है तो मधुमक्खी बिना बुलाये आ जाती है और हम जब प्रसिद्द होंगे तो लोग बिना बताये हमारा गुणगान करने लगेंगे । ईश्वर के अनेकों रूप और अनेकों नाम है और अनेक तरीको से ईश्वर की कृपा दृष्टि प्राप्त किया जा सकता है और हम ईश्वर को किस नाम या किस तरह से पूजा करते है यह उतना महत्वपूर्ण नही है जितना की हम अपने अंदर उस ईश्वर को कितना महसूस करते है ।